शनिवार, 28 सितंबर 2024

*४४. रस कौ अंग १३/१६*

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*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४४. रस कौ अंग १३/१६*
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जगजीवन मन उनमनि, मनसा अंतर ध्यांन ।
नित प्रति खोजै आतमा, सो अगम अगोचर ग्यांन ॥१३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो वैरागी मन अंतर में ध्यान करते हैं । वे नित्य उस परमात्मा को खोजते रहते हैं उन्हें ही उन अगम अगोचर प्रभु का ज्ञान होता है ।
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मूल कंवल मांही उदिक, मन पीवै गुन गालि ।
पंच पखेरू१ रमि रहैं, जगजीवन तिहिं तालि२ ॥१४॥
(१. पखेरू=पक्षी) (२. तालि=सरोवर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन रुपी कमल में जो आंनद जल है उसे गुण रहित होकर पीजिये । ऐसे मन रुपी ताल में पांचों ज्ञान इन्द्रियाँ रमती रहे ।
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उनमनि अनहद ऊपजै, उनमनि कला अनंत ।
उनमनि अस्थिर मन करैं, जगजीवन ते संत ॥१५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि वैराग्य से अनहद सुनता है वैराग्य अनंत कला युक्त है । वैरागी ही अस्थिर मन को स्थिर करते हैं ऐसे ही सच्चे संत है ।
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अम्रित सुधारस जे पिवैं, ते विष बांधैं नांहि ।
कहि जगजीवन रांम हरि, सबद मांहि मन मांहि ॥१६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो जन अमृतरस रुपी राम नाम स्मरण पीते हैं वे विषय रुपी विष नहीं संग्रह करते उनके मन में तो राम या हरि शब्द ही रहते हैं ।
(क्रमशः)

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