शनिवार, 28 सितंबर 2024

सुहणा मांहै भोग करीदा

🌷🙏 🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🌷🙏 *#बखनांवाणी* 🙏🌷
*https://www.facebook.com/DADUVANI*
*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
.
*दादू सपने सूता प्राणिया, किये भोग विलास ।*
*जागत झूठा ह्वै गया, ताकी कैसी आस ॥*
=============
संसार तथा सांसारिक पदार्थों का मिथ्यात्व ॥
हरि गुण गाइलै जनम अमोलिक जिनि गमैं,
हरि भजि लेखै लाइलै ॥टेक॥
बाल बिनोद खेलणा खेलै, घर मन्दिर दरवाजावे ।
कह हाथी घोड़ा ऊंट सलीता, ठाकुर चाकर राजावे ॥
चलती बेर बिझाणी चल्लै, सर्या न एकौ काजावे ।
जागि न देखै छोहरा, अैसा यहु देवाजावे ॥
चारि राति सुहणा सा देख्या, जिव जाणैं क्यूँह पायावे ।
सुहणा मांहै भोग करीदा, क्या खरच्या क्या पायावे ॥
सुहणा मांहै संपै पाई, क्या घर मांहै आयावे ।
जागि न देखै छोहरा, अैसा झूठ सवायावे ॥
यहु सोवण का पहरा नाहीं, यहु जागण की वारीवे ।
कह्या हमारा जे सुणैं, मूरिख नींद निवारीवे ॥
जागौ लोगौं ना सोवौ, नींद न धरौ पियारवे ।
जैसा सुपिना रैणि का, तैसा यहु संसारवे ॥
सुहणा देखि गया बहुतेरा, हौं भी देखण आयावे ।
किनहूँ देख्या के आइ देखिसें, केइयक देखि सिधायावे ॥
इहि सुहणा की संपै मांहै, बड़ा बड़ा डककायावे ।
बषनां सुहणा साचा देख्या, ज्याँह गोविंद का गुण गायावे ॥१४॥
.
जिनि गमैं = बर्बाद मत कर । लेखै लाइलै = सही उपयोग कर । बाल = बालक । खेलणा = खेल । सलीता = सम्पत्ति । बिझाणी = मिटाकर । सर्या = सफल, पूर्ण । छोहरा = अविवेकी, संसारासक्त जीव । देजावा = खेल । जागि = विवेकवान बनकर । चारिराति = बाल, युवा वृद्ध और जरावस्था । सुहणा = स्वप्न । जिव = प्राणी । क्यूँह = कुछ । करीदा = किये । संपै = संपत्ति । सवाया = त्रिकाल झूंठ, अत्यन्त झूंठ, जिसमें सत्यांश का लेश मात्र भी नहीं है । पहरा = समय । सोवण = भ्रमित होने का । पियार = प्रीति । हौं = मैं । डहकाया = भ्रमित हो गये । ज्याँह = जिन्होंने ॥ वे = पूर्त्यर्थ मात्र है । इस प्रकार के प्रयोग अन्य संतों की वाणियों में भी मिलते हैं । विशेषकर शाहपुरा के रामस्नेही संतों के पंजाबी राग के पदों में ।
.
‘दुर्लभोमानुषो देहो देहीनां क्षणभंगुरः’ (भागवत) मनुष्य देह मिलना सर्वथा दुर्लभ है । फिर यह क्षणभंगुर है । अतः इसका सदुपयोग जितना जल्दी हो सके, कर लेना चाहिये अन्यथा हाथ मलते रह जाने के अतिरिक्त और कुछ शेष रहता नहीं है । मनुष्य जन्म अमूल्य है । इसे व्यर्थ के सांसारिक विषय भोगों में लगाकर बर्बाद मत कर । हरि के गुणों का अनुवाद कर । हरि का भजन करके इसका सदुपयोग कर ।
.
बालक मनोविनोदार्थ मिट्टी के घर, मंदिर, दरवाजे, और कभी-कभी हाथी, घोड़े, ऊंट आदि बना-बना कर खेल खेलते हैं । कभी धन-सम्पत्तियुक्त ठाकुर = राजा तथा उनके नौकर बन-बनकर खेलते हैं । किन्तु जैसे ही वे खेल के मैदान से घर को चलते हैं, उन मिट्टी के सभी हाथी-घोड़े, घर-मंदिरों को मिटा देते हैं ।
.
बताइये ! इनसे उन बालकों का क्या प्रयोजन = कार्य = स्वार्थ सिद्ध हुआ । हे माया-मोह में फँसे मूर्ख जीव ! जाग-विवेकवान बन क्योंकि यह संसार तथा इस संसार के विषय भोग इन बालकों जैसा खेल मात्र ही है जो क्षणिक तथा अर्थहीन है । ‘या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी । यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः’ ॥ गीता २/६९ ॥
.
जीव द्वारा चारों अवस्थाओं को भोगों में भोगना ठीक वैसे ही है जैसे रात्रि में सोते समय स्वप्न में कुछ अप्राप्त वस्तु को प्राप्त कर लेना होता है । स्वप्न में ही उन वस्तुओं को जीव भोगना अनुभव करता है किन्तु बताइये, यथार्थ में उन स्वप्नगत वस्तुओं में से जीव ने कितनी तो प्राप्त की और उनमें से कितनी खर्च की ।
.
(सम्पत्ति होती तो प्राप्त होती और प्राप्त होती तो भोग व खर्च होती । स्वप्न की वस्तुएँ तो गधे के शिर के श्रृंग के समान मिथ्या हैं ।) स्वप्न में संपत्ति की प्राप्ति होती है किन्तु घर में कितनी संपत्ति मूर्तरूप में प्राप्त होती है ? अरे मूर्ख अविवेकी जीव, विवेकवान होकर क्यों नहीं चिंतन करता कि स्वप्नवत् यह संसार, शरीर, विषयभोग सब के सब नितांत झूंठे हैं ।
.
अरे ! मनुष्य जन्म सोने के लिये नहीं है = मात्र भोगयोनि नहीं है । यह तो जागने के लिये है, विवेकवान बनकर भगवत्प्राप्ति करने के लिये है । यदि तू हमारा उपदेश सुनना चाहता है तो, हमारा उपदेश यही है कि भ्रम का समूलतः उच्छेद करके वैराग्य, भक्ति और ज्ञान का आश्रय ग्रहण करके स्वस्वरुपस्थ हो जा । “ज्ञान भगति बैराग बिन कोइ न उतर्यौ पार ॥”
.
हे लोगों ! विवेक-वैराग्य का आश्रय लेकर भगवदुन्मुख होवो । विषय भोगों में आसक्त मत होवो । विषय-भोगों से प्रीति मत करो । जिसप्रकार रात्रि में सोते समय आया स्वप्न मिथ्या होता है, ऐसे ही यह संसार भी मिथ्या ही है । (वस्तुतः संसार व्यवहार रूप में सदैव सत्य होता है किन्तु परमार्थतः यह सर्वथा असत्य ठहरता है । यहाँ संसार को परमार्थतः ही असत्य बताया गया है) इस संसार रूपी स्वप्न को देख देख कर बहुत से लोग मर चुके हैं ।
.
मैं भी इस संसार को देखने ही आया था, संसार में ही उत्पन्न होकर रहा हूँ । बहुतों ने इसे देख लिया है, बहुत से जन्म लेकर इसे देखेंगे और बहुत से देखकर परलोक सिधा चुके हैं । वस्तुतः इस संसाररूपी स्वप्न की संपत्ति रूपी भोगों ने बड़े-बड़े विवेकी और चतुर लोगों को भी भ्रमित किया है । वस्तुतः उन्हीं ने इस संसार रूपी स्वप्न को इसके सच्चे रूप में जाना है जिन्होंने गोविन्द के नाम और गुणों का गायन किया है ॥१४॥
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें