शनिवार, 28 सितंबर 2024

*श्री रज्जबवाणी, उपदेश का अंग ८*

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*दादू एकै घोड़ै चढ चलै, दूजा कोतिल होइ ।*
*दुहुँ घोड़ों चढ बैसतां, पार न पहुंचा कोइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ सारग्राही का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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उपदेश का अंग ८
एक को ठौर सही उर अंतर,
माया रहै भावै१ ब्रह्म विचारै ।
ज्यों मुख कीरी२ के एक कनूंको३ जु,
दूजो गहै जब दारुन४ डारै ॥
तिने५ परि बूंद रहै पुनि एक हि,
ता परि और कहो कैसे चारै६ ।
ज्यों की ह्वै वायु तरंग ह्वै त्यों ही की,
रज्जब सामों हिलोरो७ न मारै८ ॥७॥
जैसे चींटी२ के मुख में एक ही दाणा३ रहता है, जब दुसरा भी उठाती है तो कठिनता४ पड़ती है, अत: दूसरे को डाल देती है ।
तृण५ के अग्र भाग पर एक ही जल बिंदु रहती है । उस पर दूसरी कैसे विचर६ सकती है अर्थात दूसरी नहीं रह सकती ।
जिस दिशा से वायु आती है, उसी से तरंग आती है । वायु के सामने जल तरंगें७ नहीं चलाता८ है ।
वैसे ही सत्य है, हृदय के भीतर एक ही को स्थान मिलता है,चाहे१ माया रहे वा ब्रह्म विचार रहे ।
(क्रमशः)

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