रविवार, 22 सितंबर 2024

*संसार में ईश्वर-लाभ किस प्रकार होता है*

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*दादू सिरजनहारा सबन का, ऐसा है समरत्थ ।*
*सोई सेवक ह्वै रह्या, जहँ सकल पसारैं हत्थ ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*संसार में ईश्वर-लाभ किस प्रकार होता है*
गिरीश के जलपान के लिए मिठाई आयी है । फागू की दूकान की गर्म कचौड़ियाँ, पूड़ियाँ और दूसरी मिठाइयाँ । फागू की दूकान वराहनगर में है । श्रीरामकृष्ण ने अपने सामने वह सब सामान रखकर प्रसाद कर दिया । फिर स्वयं उठाकर मिष्टात्र और पूड़ियों का दोना गिरीश को दिया । कहा, 'कचौड़ियाँ बहुत अच्छी हैं ।'
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गिरीश सामने बैठकर खा रहे हैं । गिरीश को पीने के लिए पानी देना है । श्रीरामकृष्ण के पलंग के पश्चिम की ओर सुराही में पानी है । गरमी का समय है, वैशाख का महीना । श्रीरामकृष्ण ने कहा, 'यहाँ बड़ा अच्छा पानी है ।'
श्रीरामकृष्ण बहुत ही अस्वस्थ हैं । खड़े होने की शक्ति तक नहीं रह गयी है ।
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भक्तगण आश्चर्यचकित होकर देख रहे हैं - श्रीरामकृष्ण की कमर में वस्त्र नहीं है, दिगम्बर हो रहे हैं । बालक की तरह पलंग पर बैठे सरक-सरककर बढ़ रहे हैं - इच्छा है, खुद पानी दे दें । श्रीरामकृष्ण की वह अवस्था देखकर भक्तों की साँस मानो रुक गयी ।
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श्रीरामकृष्ण ने गिलास में पानी ढाला । गिलास से थोड़ासा पानी हाथ में लेकर देख रहे हैं कि पानी ठण्डा है या नहीं । उन्होंने देखा, पानी अधिक ठण्डा नहीं है । अन्त में यह सोचकर कि दूसरा अच्छा पानी यहाँ मिल नहीं सकता, श्रीरामकृष्ण ने इच्छा न होते हुए भी गिरीश को वही पानी पीने के लिए दिया । गिरीश मिठाइयाँ खा रहे हैं । चारों ओर भक्तगण बैठे हुए हैं । मणि श्रीरामकृष्ण को पंखे से हवा कर रहे हैं ।
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गिरीश - (श्रीरामकृष्ण से) - देवेन्द्रबाबू संसार का त्याग करेंगे ।
श्रीरामकृष्ण सब समय बातचीत नहीं कर सकते, बड़ा कष्ट होता है । अपने ओठों में उँगली छुआकर उन्होंने इशारे से पूछा, 'फिर उनके घरवालों के भरण-पोषण की क्या व्यवस्था होगी, - संसार कैसे चल सकेगा ?"
गिरीश - मुझे नहीं मालूम कि वे क्या करेंगे ।
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सब लोग चुप हैं । गिरीश खाते-खाते फिर बातचीत करने लगे ।
गिरीश - अच्छा महाराज, कौनसा ठीक है ? - कष्ट में संसार का त्याग करना या संसार में रहकर उन्हें पुकारना ?
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - क्या गीता में तुमने नहीं देखा ? अनासक्त हो संसार में रहकर कर्म करते रहने पर, सब मिथ्या समझकर ज्ञानलाभ के पश्चात् संसार में रहने पर अवश्य ही ईश्वर-प्राप्ति होती है ।
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"कष्ट में पड़कर जो लोग संसार का त्याग करते हैं, वे निम्न कोटि के मनुष्य हैं ।
"संसार में रहनेवाला ज्ञानी कैसा है - जानते हो ? - जैसे काँच के घर में रहनेवाला मनुष्य, - वह भीतर-बाहर सब देखता है ।"
सब लोग चुप हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - कचौड़ियाँ गर्म हैं, बहुत ही अच्छी हैं ।
मास्टर - (गिरीश से) - फागू की दूकान की कचौड़िया प्रसिद्ध हैं ।
श्रीरामकृष्ण – हाँ, प्रसिद्ध हैं ।
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गिरीश - (खाते ही खाते, सहास्य) - जी, बहुत ही अच्छी हैं ।
श्रीरामकृष्ण - पूड़ियाँ रहने दो, कचौड़ियाँ खाओ । (मास्टर से) परन्तु कचौड़ी रजोगुणी भोजन है ।
गिरीश - (श्रीरामकृष्ण से) - अच्छा महाराज, मन अभी इतनी उच्च भूमि पर है, फिर नीचे भला क्यों गिर जाता है ?
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श्रीरामकृष्ण - संसार में रहने से ऐसा होता ही है । कभी मन ऊँचे चढ़ जाता है, कभी गिर जाता है ? कभी बहुत अच्छी भक्ति होती है, कभी भक्ति की मात्रा घट जाती है । कामिनी और कांचन लेकर रहना पड़ता है न, इसीलिए ऐसा होता है । संसार में रहकर भक्त कभी ईश्वर-चिन्ता करता है, कभी उनका स्मरणकीर्तन करता है, कभी वही मन कामिनी और कांचन की ओर लगा देता है । जैसे साधारण मक्खी – कभी बर्फियों पर बैठती है, और कभी सड़े घाव और विष्ठा पर भी बैठती है ।
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त्यागियों की बात और है । वे लोग कामिनी और कांचन से मन को हटाकर केवल ईश्वर में ही लगाते हैं । वे केवल हरि-रस का ही पान करते हैं । जो यथार्थ त्यागी हैं, उन्हें ईश्वर के सिवा और कोई वस्तु अच्छी नहीं लगती । विषय-चर्चा होने पर वे वहाँ से उठ जाते हैं । ईश्वरीय प्रसंग वे ध्यान से सुनते हैं । जो यथार्थ त्यागी है, वह ईश्वर की बात छोड़ और दूसरी चर्चा करता ही नहीं ।
"मधुमक्खी फूल पर ही बैठती है - मधु पीने के लिए । और कोई चीज उसे अच्छी नहीं लगती ।"
गिरीश दक्षिण की छोटी छत पर हाथ धोने के लिए गये ।
(क्रमशः)

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