मंगलवार, 1 अक्तूबर 2024

*दत्तात्रेयजी*

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*तहँ वचन अमोलक सब ही सार,*
*तहँ बरतै लीला अति अपार ।*
*उमंग देइ तब मेरे भाग,*
*तिहि तरुवर फल अमर लाग ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*दत्तात्रेयजी*
*सवैया-*
*मोह न द्रोह ममत्त न माया रमत्त,*
*सुभाया१ जु ऐसे भये दत्त-देव२ दिगम्बर ।*
*अयोनि असंग नहीं तन भंग न प्राण तरंग,*
*जु शोभित है तप तेज को संवर३ ॥*
*लियो तत छाँणि४ महाजन जाँण सु,*
*धाये प्रमाण जु धारे पचीस गुरु धर अंबर७ ।*
*राघो कहै यदु मिले आय जद५,*
*यूं बंद छाडे हैं ज्ञान कथं६ वर ॥२९९॥*
दत्तात्रेयजी२ ऐसे दिगम्बर(दिशा ही जिनका वस्त्र था) हुये हैं कि उनके अन्तःकरण में- मोह, द्रोह, ममता और कपट नहीं थे । स्वाभाविक१ ही भू पर विचरते थे । उनके जन्म का कोई कर्म कारण नहीं था ।
लीला मात्र से विष्णु ही दत्तात्रेय बन गये थे । संग दोष से रहित थे । उनका शरीर क्षीण या नष्ट नहीं हुआ है । उनके मन में किसी प्रकार की मनोरथ रूप तरंग नहीं उठती थी । वे तप-तेज के पुंज३ थे ।
उनने सम्यक् तत्त्व विचार४ कर लिया था । इस बात को सभी महापुरुष जानते थे । उनने पृथ्वी आकाश७ आदिक पचीस गुरु धारण किये थे । इनके चौबीस गुरुओं की कथा श्रीमद्भागवत में प्रसिद्ध है और पचीसवें गुरु इनके महर्षि ऋभुजी हैं । ये उक्त पचीस गुरुओं का ज्ञान धारण कर के प्रामाणिक मार्ग से चले थे ।
राघवदासजी कहते हैं- जब५ महाराज यदुजी आकर आपसे मिले थे तब इनने श्रेष्ठ ज्ञान कथन६ करके उनका बन्धन इस प्रकार छुड़ाया था कि फिर वे बन्धन में नहीं पड़ सके । उस प्रकार यदुजी का बन्धन अन्य कोई भी नहीं छुड़ा सकता था ॥२९९॥
*विशेष विवरण* - अवधूत दत्तात्रेयजी महर्षि अत्रि और अनसूयाजी के पुत्र हैं । अनसूयाजी कर्दम प्रजापति और देवहूति की पुत्री, कपिलजी की बहिन थीं । अत्रि व अनसूयाजी ने पुत्र प्राप्ति के लिये तीव्र तपस्या की थी ।
इनकी तपस्या से प्रसन्न हो कर त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और शंकरजी इनके सामने प्रकट हुये और कहा- तुमने उत्तम संतान प्राप्ति के लिये तपस्या की हैं । अतः तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण करने के लिये हम तीनों तुम्हारे पुत्र रूप में प्रकट होंगे ।
फिर शंकर के अंश से दुर्वासा, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा और विष्णु के अंश से दत्तात्रेय प्रकट हुये । दत्तात्रेयजी ने सर्वज्ञ होने पर भी गुरुसम्प्रदाय की और गुरुमर्यादा की रक्षा के लिये महर्षि ऋभुजी से संपूर्ण मंत्ररहस्य और उपासना की शिक्षा प्राप्त की थी और पुनः आकर अत्रि आश्रम के पास ही रहने लगे थे ।
इन्हें बालकों के साथ खेलना प्रिय लगता था । किन्तु उस समय भी आत्मचिन्तन करते रहते थे । सभी बालक इनसे अति प्रेम करते थे । एक क्षण भी इनसे अलग नहीं होना चाहते थे । इससे इनके योगाभ्यास में बाधा पड़ती थी ।
एक दिन बालकों का संग छोड़ने के लिये खेलते खेलते एक तालाब में घुस गये और तीन दिन तक बाहर नहीं निकले । वे सब बालक भी तीन दिन तक वहाँ हीं खड़े रहे । तीन दिन के बाद बाहर निकले तब सब बालक अति हर्षित हुये और पूछा- तुम तीन दिन तक भीषण तालाब में कैसे रहे इत्यादि अनेक प्रश्न पूछे किन्तु दत्तात्रेय कुछ नहीं बोले, तब बालक पुनः दुःखी हुये ।
दत्तात्रेयजी ने सोचा मैने तो इनका संग छोड़ने के लिये ऐसा किया था किन्तु इनका इस योग शक्ति से और भी अधिक स्नेह बढ़ गया है । वे पुनः उसी तालाब में घुस गये । और तीन दिन के बाद अपने योग बल से एक सर्वांग सुन्दरी को वाम भाग में लिये हुये और दाहिने हाथ में एक मदिरा का घड़ा लिये और अनेक प्रकार की कुत्सित चेष्टा करते हुये प्रकट हुये । इनको इस प्रकार देख कर ऋषिकुमारों का मन उपरत हो गया । उन सबने इनका साथ छोड़ दिया ।
अब बालकों से होने वाला विघ्न समाप्त हो गया । इन्होंने अलर्क, प्रह्लाद आदि को तत्त्व ज्ञान का उपदेश दिया था । दत्तात्रेयजी आज भी करवीर नगर में भिक्षा माँगते हैं, गोदावरी तट पर भोजन करते हैं और सह्य पर्वत पर शयन करते हैं- ऐसा सुना जाता है । समय समय पर अधिकारी पुरुषों को दर्शन देते हैं । अपने संकल्प से जगत् में शांति का विस्तार करते हैं ।
(क्रमशः)

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