बुधवार, 2 अक्तूबर 2024

*४४. रस कौ अंग १७/२०*

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*४४. रस कौ अंग १७/२०*
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कहि जगजीवन एक रस, कोई पीवै साधू एक ।
और विषै रस आनि चित३, पीवहिं प्रांणि अनेक ॥१७॥
(३. आन चित=मन में ला कर) 
संतजगजीवन जी कहते हैं कि एक प्रभु नाम रुपी रस तो  साधु जन ही पीते हैं और विषयीविष तो कितने ही प्राणी पीते रहते हैं ।
जे रस पीवहि प्रांणियां, ताहि की अति प्यास ।
कोई अम्रित कोई बिषै बिष, सु कहि जगजीवनदास ॥१८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो जन राम नाम रस पीते हैं उन्हें इसकी प्यास ही रहती है व कोइ विषयीविष पीते हैं जिसे जिसकी प्यास होती है वह अपनी रुचि अनुसार अमृत या विष पीते हैं ।
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रस की त्रिसा४ जगाइ करि, रस मांगै रस प्यास ।
तौ रस रूपी स्त्रवै रस, सु कहि जगजीवनदास ॥१९॥
{४. त्रिसा=तृषा (=प्यास)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जब प्रभु स्मरण रस पान की आदत हो जाती है तो फिर बार बार वह प्यास प्रबल हो प्रभु नाम की ही इच्छा करती है । तो फिर वह ही रस झरता है ।
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आतम अस्थल प्रेम रस, नांम रटत लहै सार ।
कहि जगजीवन भीजि मन, हरि भजि उतरै पार ॥२०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि आत्मा में राम नाम का स्मरण ही सार है इससे मन आनंद रस में भीगता है और जन स्मरण से पार उतरते हैं ।
(क्रमशः) 

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