गुरुवार, 10 अक्तूबर 2024

*स्वात्मकथन ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*सब हम देख्या सोध कर, वेद कुरानों माँहि ।*
*जहाँ निरंजन पाइये, सो देश दूर, इत नांहि ॥*
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*स्वात्मकथन ॥*
जिहिं गढ़ि चढ़ि रह्या मेरा मन मेवासी ।
तिहिं गढ़ि चढ़ि जम जीति न जासी ॥टेक॥
सो गढ़ निगम अगम गढ़ आगै । 
तिहि गढ़ि कहीं लगाव न लागै ॥
पाच पचीस येक घरि आणैं । 
भेद भलै कोइ बिरला जाणैं ॥
चंद सुरज सो नहीं उलांड्या । 
तहाँ बषनां मेवासा मांड्या ॥१७॥
मेवासी = दुर्धर्ष युद्धा; लुटेरा; यहाँ ऐसे मुमुक्षु से तात्पर्य है जिसने समस्त प्रत्यवार्यो = विघ्नों को समाप्त करके स्वात्मतत्त्व का अपरोक्ष कर लिया है । निगम = वेद । अगम = आगम; तंत्रादि आगमशास्त्र । लगाव = ऊपरी आचरण; यहाँ किसी का भी प्रभाव काम नहीं करता, से तात्पर्य है । मकान में प्लास्टर, सफेदी आदि करने से मकान सुन्दर दीखने लगता है किन्तु परमात्मा रूपी गढ़ पर किसी अन्य के लेपन की आवश्यकता नहीं है क्योंकि परमात्मा स्वयं सिद्ध है, अप्रितम है, सबकी अंतिम अवधि है । “ओऽम नमः सिद्धम्” ओऽम स्वरूप परमात्मा जो स्वयं सिद्ध है को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ कातंत्र व्याकरण में भेद = रहस्य, साक्षात्कार । उलांड्या = उल्लंघन किया । मेवासा = मोर्चा, युद्ध; मांड्या = किया ।
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बषनांजी अपनी स्थिति का दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं, मेरा निजात्मचिंतन = रत मन जिस गढ़ रूपी परमात्मा में निमग्न है उस गढ़ रूपी मुक्तात्मा रूपी गढ़ वेद तथा शास्त्रों की पहुँच से परे हैं । इस गढ़ पर अन्य किसी का कोई वश भी नहीं चल पाता है ।
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इस गढ़ रूपी परमात्मा का रहस्य = साक्षात्कार वही विरला साधक कर सकता है जिसने पांचों ज्ञानेन्द्रियों तथा उनकी पच्चीसों प्रकृतियों का प्रवाह संसार की ओर से हटाकर एक परमात्मा की ओर मोड़ दिया है ।
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जिस गढ़ = स्थान का चंद्रमा और सूर्य भी उत्क्रमण नहीं कर पाए उस स्थान पर मैं बषनां ने अपना मोरचा संभाल रखा है ॥१७॥
(क्रमशः)

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