मंगलवार, 8 अक्तूबर 2024

*४४. रस कौ अंग २५/२८*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४४. रस कौ अंग २५/२८*
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कहि जगजीवन रांमजी, जिस रस भरिये धांम ।
ते रस मांहि व्रिधि१ करि, ले राखै तिहि ठांम ॥२५॥ 
(१. व्रिधि=वृद्धि) 
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिस रस से घर भर जाये उसी रस में वृद्धि कर उसे यथा स्थान रखते हैं ।
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उभै प्रेम रस उभै थिति, शिव सक्ति द्वै नांम ।
कहि जगजीवन जुगल रस, जग रांमा२ जन३ रांम ॥२६॥
(२. जग रांमा=जगत् के लिये नारियाँ)   (३. जन रांम=भक्त के लिये भगवान् का नाम)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि दो ही प्रकार से प्रेम है सहज या साधना द्वारा जिसके दो नाम है शिव व शक्ति शिव सहज रुप निर्लिप्त भाव है व शक्ति साधना का मार्ग व मनोरथ का अनुसरण है । कहीं जो संसार में स्त्रियों का स्थान है वह ही भक्तों  के लिये भगवन्नाम का है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, प्रांणनाथ रस पाइ ।
अपना अंग मंही राखिये, आप क्रिपा करि आइ ॥२७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु, हे स्वामी हमें अपने नाम स्मरण का रस पिलावैं । आप अपना कृपांश रखें । और मन में आने की कृपा करें ।
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कहि जगजीवन रांमजी, सौंज४ सकल हर पहरि५ ।
नख सिख वपु मंहि विराजै, क्रिपा दया करि मिहरि ॥२८॥
(४. सौंज=पूजा के साधन)    (५. हर पहरि=प्रत्येक क्षण)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु हर समय आपकी पूजा के साधन हर पहर तैयार रहें । आप का ध्यान सम्पूर्ण देह में नख से शिखा तक बना रहे ऐसी कृपा करें ।
(क्रमशः)

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