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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू सब ही मृतक समान हैं,*
*जीया तब ही जाण ।*
*दादू छांटा अमी का, को साधु बाहे आण ॥*
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*संत-संगति-महिमा ॥*
मूँनैं कोई अैसौ मेलि रमइया ।
हम कूँ लेर मिलावे तुम्ह सूँ, रामसनेही भइया ॥टेक॥
हरि हितकारी पर उपगारी, पर उपगार समावै ।
पर बेदंन पराई बूझै, मेरी पीड़ मिटावै ॥
सब गुण तहत हरि गुण कहता, सब अघ दहता आवै ।
छाँटा एक अमीं का डालै, बलती भाहि बुझावै ॥
कहै तुम्हारी सुनैं हमारी, सैंण संदेसा ल्यावै ।
दर तेरे का को दरबारी, “क्रिया करै तौ पावै” ॥
हरि की कथा कहै हम आगै, रुचि मैं रुचि उपजावै ।
बषनां उन साधौं की संगति, आनँद मैं दिन जावै ॥१८॥
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पाठांतर “क्रिया करौ तौ आवै” (वि.सं. १७८५ की प्रति) मेलि = भेज । लेर = लेकर । हरि हितकारी = वह आप हरि का भी हितैषी हो । “मोरे मन प्रभु अस बिसवासा । राम ते अधिक राम कर दासा ॥ राम सिंधु घन सज्जन धीरा । चंदन तरु हरि संत समीरा ॥” संत हरि के हितकारी इसलिये होते हैं कि वे साधकों के समक्ष हरि का माहात्म्य वर्णित करके उन्हें उसका भक्त बनाते हैं । यदि संत न हों तो हरि का माहत्म्य कौन बताये तथा बिना माहात्म्य जाने कौन हरि को माने । गोस्वामीजी ने सिंधु व घन तथा चंदन सुगंधि व समीर का उदाहरण देकर इस तथ्य को बहुत ही उत्तम रीत्या स्पष्ट किया है । पीड़ = व्यथा, दुख । रहता = रहित, अलिप्त । अघ = पाप । दहता = नष्टकर्ता । छाँटा = छींटा । अमीं = अमृत । भाहि = अग्नि । सैंण = इशारा, संकेत । परमात्म = साक्षात्कार का वाणी से वर्णन करना सर्वथा अशक्य है । वह संकेतों द्वारा ही बताया जा सकता है । जैसे गूंगा गुड़ का स्वाद ले तो सकता है किन्तु वर्णित नहीं कर सकता है “मूकास्वादनवत्” नारदभक्तिसूत्र ॥ दर = घर, दरवाजा । दरबारी = अधिकारी ।
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हे घट-घट में रमने वाले रमैया राम ! मेरे पास कोई ऐसा रामस्नेही = तेरे से अनन्य स्नेह करने वाला भेज जो मुझे रामस्नेही बनाकर तेरे से मिलाने को तेरे पास लेकर आवे ।
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वह रामस्नेही तेरा हितकारी = हितैषी हो; परोपकारी हो और उसकी वृत्ति सदैव परोपकार करने में ही निमग्न रहती हो । वह परवेदना = दूसरों की व्यथाओं को भली प्रकार बूझै = पूछे और उनके निस्तारण का मार्ग बताये । साथ ही मेरी पीड़ा = जन्म-मरणात्मक दुःख अथवा त्रिविध दुःखों को नाश कर देवे ।
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वह तम, रज तथा सत्त्व = तीनों ही मायिक गुणों से अतीत हो किन्तु तेरे गुणों का कथन करने वाला हो । हे प्रभो ! ऐसा रामस्नेही मेरे पास आवे जो समस्त पापों को समाप्त करने में सर्वथा सक्षम हो । मेरे हृदय में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्यादि षड़रिपुओं रूपी जलती अग्नि को आपकी कथा रूपी अमृत की एक बूंद से सींचकर बुझा देने में वह वह कुशल हो ।
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हमारी जिज्ञासों को सुनकर समाधानार्थ हमारे समक्ष आपकी चर्चाएँ करे तथा अपरोक्षानुभूति का व्याख्यान पूरा न कर सके तो संकेतों से अवश्य करके हमें कृतार्थ करे । हे प्रभु ! यदि तू कृपा हम पर करेगा तोही तेरा अधिकारी मुझको मिल सकेगा । वह हमारे समक्ष आपकी महिमा वर्णित करे ।
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जिज्ञासा अधिक से अधिक बढ़ावे । (नारद भक्तिसूत्र में प्रेम के लक्षण बताते हुए एक लक्षण “प्रतिक्षण वर्धमानम्” प्रतिक्षण बढ़ने वाला भी बताया है यहाँ बषनांजी द्वारा रुचि में रुचि उपजाने की प्रार्थना करना इसी “प्रतिक्षण वर्धमानम्” को प्रतिध्वनि है) वस्तुतः ऐसे रामस्नेही, जिसके लक्षण ऊपर बताये गये हैं को संगति में समय आनंद में व्यतीत होता है ॥१९॥
(क्रमशः)
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