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*सकल शिरोमणि सब सुख दाता,*
*दुर्लभ इहि संसार ।*
*दादू हंस रहैं सुख सागर, आये पर उपकार ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*मनहर-
*शंकर के शिष्य चारि जातें दश नाम यह,*
*स्वरूपाचारज के द्वै तीरथ रु आरनै ।*
*पदमाचारज के जु दोय शिष्य शूर वीर,*
*आश्रम रु वन नाम ज्ञानी गुन जारनै ॥*
*तोटकाचारज के सु तीन शिष्य भक्त ज्ञानी,*
*पर्वत सागर गिरि गुरु सेय वारनै ।*
*पृथ्वी धराचारज के राघो कहै तीन शिष्य,*
*सरस्वती भारती पुरी दश नाम वारनै ॥३०२॥*
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शंकराचार्यजी के चार शिष्य हुये हैं-१. स्वरूपाचार्य(हस्तामलक) इनके दो शिष्य हैं । तीर्थ और आरण्य । २. पद्माचार्य(पद्मपादाचार्य) इनके साधन करने में शूरवीर आश्रम और वन दो शिष्य हुये हैं । दोनों ही बड़े ज्ञानी और काम क्रोधादि गुणों को जलाने वाले हुये हैं । ३. तोटकाचार्य के ज्ञानी भक्त तीन शिष्य हुये हैं- पर्वत, सागर और गिरि, तीनों ही गुरु देव के द्वार३ का पालन करने वाले थे । ४. पृथ्वीधराचार्य(सुरेश्वराचार्य) के भी राघवदास कहते हैं- तीन शिष्य थे । सरस्वती, भारती और पुरी । इस प्रकार ये दश नाम वर्णन किये हैं । हम इन की बलिहारी जाते हैं ॥३०२॥
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विशेष विवरण- श्रीशंकराचार्यजी के जन्म समय के सम्बन्ध में अनेक मत हैं; किन्तु आजकल अधिकांश लोग ७८८ ई० में आपका जन्म मानते हैं । केरल प्रदेश की पूर्णा नदी के तट पर कालंदी नामक ग्राम में वैशाख शुक्ल पञ्चमी को आपका जन्म हुआ था । आपके पिता का नाम शिवगुरु तथा माता का नाम सुभद्रा था, कहीं कहीं विशिष्टा भी माता का नाम मिलता है । हो सकता है दोनों ही नामों से बोली जाती हों ।
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माता पिता दोनों विद्वान् थे किन्तु संतान नहीं थी । दोनों ने शंकरजी की उपासना की तब शंकरजी ने उत्तम पुत्र होने का वर दिया । आप सात वर्ष की अवस्था में पूर्ण विद्वान् हो चुके थे । आप जब तीन वर्ष के थे तब आपके पिताजी का स्वर्गवास हो गया था । माता से आपने संन्यास लेने की आज्ञा माँगी किन्तु माता ने नहीं दी ।
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एक दिन माता के साथ नदी में स्नान कर रहे थे तब इनको मगर ने पकड़ लिया । माता रोने लगी । आपने कहा- मुझे संन्यास लेने की आज्ञा दे दो तो मगर छोड़ देगा । माता ने तत्काल आज्ञा दे दी, मगर ने छोड़ दिया । आप आठ वर्ष की अवस्था में घर से निकले । जाते समय माता की इच्छानुसार वर दे गये कि आपकी मृत्यु के समय मैं घर पर उपस्थित रहूँगा ।
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घर से चलकर नर्मदा तट पर स्वामी गोविन्दपादजी से दीक्षा ली और उनके उपदेशानुसार साधन करके अल्प काल में ही महान् योग सिद्ध महात्मा हो गये । उनकी योग्यता देखकर गुरुजी ने काशी जाकर वेदान्त सूत्र का भाष्य लिखने की आज्ञा दी । आप काशी आ गये, काशी में आपकी ख्याति बढने लगी ।
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आपके प्रथम शिष्य सनन्दनजी हुए जो पीछे पद्मपादाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए । एक दिन भगवान् विश्वनाथजी ने चाण्डाल के रूप में दर्शन दिया था । आपने उनको पहचान कर प्रणाम किया था तब ब्राह्मण के रूप में व्यासजी ने इनसे एक सूत्र का अर्थ पूछा । उस सूत्र पर ब्राह्मण के साथ आठ दिन तक शास्त्रार्थ हुआ । फिर ज्ञात होने पर कि ये व्यास हैं तब उन्हें प्रणाम करके क्षमा माँगी । व्यास ने प्रसन्न होकर आपकी आयु १६ से ३२ वर्ष की करा दी थी ।
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इसके पश्चात् शंकराचार्य दिग्विजय के लिए निकले । काशी में प्रायः सभी विरुद्ध मत वालों को परास्त कर दिया था । कुरुक्षेत्र होते हुए बदरिकाश्रम गये वहाँ भी कुछ ग्रंथ लिखे थे । १२ से १६ वर्ष तक की अवस्था में ही सब ग्रंथ लिखे थे और प्रायः काशी तथा बदरिकाश्रम में ही लिखे थे ।
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बदरिकाश्रम से प्रयाग आकर कुमारिल भट्ट से मिले और कुमारिल के कथनानुसार उन ने वे प्रयाग से मगध की माहिष्मती नगरी में मण्डन मिश्र को शास्त्रार्थ में जीतकर उनकी पत्नी भारती को जीता और मण्डन मिश्र को शिष्य बनाया, आगे मंडन मिश्र सुरेश्वराचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुये ।
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मगध विजय करके दक्षिण की ओर चले और महाराष्ट्र में शैव और कापालिकों को पराजित किया । वहाँ से चलकर दक्षिण में तुंगभद्रा तट पर शारदा देवी का मंदिर बनाया । उसके साथ जो मठ स्थापित किया वही शृंगेरी मठ है । सुरेश्वराचार्य इसी मठ के अधिपति हुए ।
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इन्हीं दिनों अपनी माता की मृत्यु समीप जानकर घर आये और माता की अंत्येष्टि क्रिया की । फिर पुरी आकर गोवर्धन मठ की स्थापना की और पद्मपादाचार्य को उसका अधिपति बनाया । फिर चोल और पाण्ड्य देश के राजाओं की सहायता से दक्षिण के शाक्त, गाणपत्य, और कापालिक सम्प्रदायों के अनाचारों को दूर किया और सर्वत्र धर्म की ध्वजा फहराई ।
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फिर बरार होते हुये उज्जैन आये और वहाँ भैरवों की भीषण साधना को बंद किया । वहाँ से गुजरात आये और द्वारका में एक मठ स्थापित किया आऔर हस्ताम काचाय को उसका अधिपति बनाया । फिर गांगेय प्रदेश के पंडितों को पराजित करते हुये काश्मीर शारदा क्षेत्र में आये । वहाँ के पंडितों को हराकर अपने मत की स्थापना की ।
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वहाँ से आसाम के कामरूप स्थान में आये, वहाँ के शैवों से शास्त्रार्थ किया फिर बदरिकाश्रम को आकर वहाँ ज्योतिर्मठ की स्थापना की और तोटकाचार्य को मठाधीश बनाया । वहाँ से केदार क्षेत्र में आये और वहाँ ही कुछ दिनों के पश्चात् जीवन लीला समाप्त कर दी ।
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शंकराचार्यजी के प्रथम शिष्य पद्मपादाचार्य थे । इनका पहला नाम सनन्दन था । इनका जन्म दक्षिण के चोल प्रदेश में हुआ था । गुरु के अनन्य भक्त थे । शंकराचार्यजी ने इनको अपने भाष्य तीन बार पढ़ाये थे । एक समय गुरुजी ने इन्हें नदी के उस पार से आवाज दी । आवाज सुनते ही गुरुजी की ओर चल पड़े और नदी जल पर जहाँ जहाँ पैर रखते थे वहाँ-वहाँ नीचे कमल निकल आता था । इस प्रकार नदी पार करके गुरुजी के पास चले आये ।
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इसी से इनका नाम गुरुजी ने पद्मपाद रख दिया था । उग्र भैरव कापालिक ने जब शंकराचार्य को बलि चढ़ाना चाहा था तब आचार्य पद्मपाद ने ही उसका वध किया था । श्रृंगेरी मठ से पद्मपाद गुरुजी से आज्ञा लेकर तीर्थाटन को गये तब अपनी लिखी हुई पुस्तक साथ ले गये थे । उसे अपने मामा के पास रख कर रामेश्वर गये थे । इनके मामा प्रभाकर मतावलम्बी थे । इनकी पुस्तक को देखकर उसे अपने मत से विरुद्ध जान, घर में आग लगा कर जला दी ।
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पद्मपाद को यह ज्ञात हुआ तब उन्होंने दुबारा लिखने का विचार किया । मामा को ज्ञात होते ही उसने इनको विष देकर इनकी बुद्धि नष्ट कर दी । यह सब हाल गुरुजी से कहा । तब गुरुजी ने कहा-एक बार तुमने मुझे जितना ग्रंथ सुनाया था वह तो मुझे याद है । मैं बोलता हूँ तुम लिख लो । आचार्य पद्मपाद का वह ग्रंथ पूरा नहीं मिलता है । उसका नाम 'पञ्चपादिका' है । इनमें केवल ब्रह्मसूत्र शंकर भाष्य के चार सूत्रों की व्याख्या है ।
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सुरेश्वराचार्य- (मंडन मिश्र) रेवा नदी तटवर्ती प्राचीन माहिष्मती नगरी के रहने वाले थे । किसी किसी के मतानुसार माहिष्मती नगरी वर्तमान राजगृह ही थी या उसके आसपास ही कहीं बसी थी । कुछ लोगों का कहना है कि यह नगरी नर्मदा तट पर कहीं वर्तमान इन्दौर राज्य में थी । मंडन मिश्र अपने समय में मगध के सबसे बड़े विद्वान् और पूर्व मीमांसक थे और कुमारिल भट्ट के शिष्य थे । कुमारिल भट्ट ने ही शंकराचार्य को मंडन के पास भेजा था ।
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शंकराचार्य माहिष्मती में पहुँचे तब स्नानार्थ आये हुये स्त्री समूह से मंडन के घर का पता पूछा । उनमें मंडन मिश्र की एक दासी थी । उसने बताया- "वेद स्वतः प्रमाण है या परतः प्रमाण है, कर्म आप ही फल देता है या ईश्वर कर्म का फल देता है, जगत् नित्य है या अनित्य है । "स्वतः प्रमाणं परतः प्रमाणं कीराङ्गना यत्र गिरो गिरन्ति" इस प्रकार जिस घर के द्वार पर पिंजरे में बैठी हुई मैना बोलती हैं, वही मंडन मिश्र का घर है ।
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शंकराचार्य मंडन के घर पहुँच गये और शास्त्रार्थ में जीतकर शिष्य बनाया । यही श्रृंगेरी मठ के अधिपति हुए और शांकर सिद्धान्त के आचार्यों में इनकी सबसे अधिक प्रतिष्ता है । आपने संन्यास लेने से पूर्व आपस्तम्बीय मंडन कारिका, भावना-विवेक, काशी-मोक्ष-निर्णय, ग्रंथ लिखे थे । पश्चात् स्वराज्यसिद्धि आदि ग्रंथ लिखे थे । अन्य दो शिष्यों का सामान्य परिचय पहले आ चुका है" ॥
(क्रमशः)
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