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*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४४. रस कौ अंग ४१/४४*
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हरि बरतै हरि रस पिवै, अबिगत राखै रांम ।
कहि जगजीवन हरि भगत, निहचल सुमिरै नांम ॥४१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभुमय व्यवहार व प्रभु के नाम स्मरण का आनंद भी वे ही भक्त जन प्राप्त करते हैं जो सदा एकस्थ हो स्मरण करते हैं ।
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कहि जगजीवन रांमजी, जोग भोग धरि राखि ।
आप बिराजौ ह्रिदै हरि, जन जीवैं रस चाखि ॥४२॥
संतजगजीवन जी कहतें है कि हे प्रभु ये योग व भोग आप ही संभाले ।हमारे तो ह्रदय में बस आप विराजें हम तो इसी आनंदरस का आस्वादन कर जीवें ।
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कहि जगजीवन रांमजी, भगति जोग निज सार८ ।
भाव ह्रिदै हरि ऊपजै, प्रेम पिवै इक तार ॥४३॥
(८. निज सार=सर्वोत्तम वस्तु)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि भक्ति व योग सर्वोतम वस्तु है, श्रेष्ठ है । जिससे प्रभु का भाव मन में आता है व जीवात्मा लीन हो प्रेमपान करता है ।
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रस पीवै जन रैणि दिन९, जे रवि तिमिर१० बिलाइ ।
कहि जगजीवन रांम धरि, ससिहर ज्यूं हरि भाइ ॥४४॥
(९. रैणि दिन=रस की अधिकता से) (१०. तिमिर=अन्धकार)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिनका रात दिवस प्रकाश व अंधकार का भेद भी मिट गया है वे राम स्मरण ऐसे करते हैं जैसे सूर्य चन्द्र भ्रातभाव में होते हैं ।
(क्रमशः)
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