मंगलवार, 29 अक्तूबर 2024

*विरह विनती ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू इस हियड़े ये साल,*
*पीव बिन क्योंहि न जाइसी ।*
*जब देखूँ मेरा लाल,*
*तब रोम रोम सुख आइसी ॥*
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*विरह विनती ॥*
निहौरौ राम निहौरौ रे, अब कै मानी मोरौ रे ॥टेक॥
धखै न धुँवाँ नीसरै रे, जलत न देखै कोइ ।
बरसि बुझावो रामजी, मेरा तौ तन सीतल होइ ॥
बिरह न बाहरि नीसरै रे, घुण ज्यूँ पंजर खाइ ।
यौं मन मेरा बेधिया, अब हा हा दरस दिखाइ ॥
रैंणि सबाई यौं रही रे, चितवत गई बिहाइ ।
चरण दिखावो रामजी, मेरा जनम अविरथा जाइ ॥
तूँ साधौं कै साधिलौ रे, भगति हेत कै भाइ ।
मेरी बरिया रामजी, अब येती बिलम न लाइ ॥
पाइ लागूँ बिनती करूँ रे, तूँ मेरै घरि आव ।
बहुतक दिन बिछुरें भये, अब बलि जाँउ बेर न लाव ॥
राम निहोरौ मानिये रे, जन की करौ सहाइ ।
दरसन दीजै दीन कौं, बषनां बलिहारी जाइ ॥२२॥
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निहोरौ = आग्रह युक्त प्रार्थना । निहौरौ = अनुग्रह । धखै = जलती है अग्नि । बरसि = जल की वर्षा करके, दर्शन देकर । घुण = गेहूँ आदि अन्न में कीड़े लग जाते हैं जिससे अन्न का दाना खोखला हो जाता है । मात्र बाहरी खोल रह जाता है । यहाँ विरह रूपी घुन ने पंजर रूपी शरीर को खोखला कर रखा है । बेधिया = बींध रखा है, मन विरह में पूर्ण रूप से निमग्न हो गया है । हा हा = दीनता-दर्शक उच्चारण किये गये शब्द । सबाई = सारी । चिंतवत = चिंतन । अविरथा = व्यर्थ । साधिलौ = सहायक । भगति = भक्त ॥
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अबकी बार = इस मनुष्य जन्म में की गई आग्रह पूर्वक मेरी प्रार्थना को हे रामजी ! मान लीजिये और मुझे अनुग्रहित करिये । मेरी प्रार्थना है, “मुझे दर्शन देकर कृतार्थ करो ।”
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आपके दर्शनों के अभाव में मेरे शरीर-मन में विरह रूपी अग्नि धधक रही है किन्तु उस अग्नि का धुवाँ बाहर नहीं निकलता है । मेरी विरह का अनुभव मात्र मैं हूँ कर पा रही हूँ । इसका अनुभव अन्यों को नहीं है । हे रामजी ! दर्शन देकर मेरी विरहाग्नि को शांत करो ताकि मेरा शरीर-मन तो शीतल हो जाये ।
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विरहाग्नि बाहर न निकलने के कारण अन्यों को अनुभूत नहीं होती है । इसकी स्थिति ठीक वैसी ही होती है जैसी घुने हुए अन्न की होती है । जो बाहर से साबुत सा दीखता है किन्तु अन्दर से खोखला होता है । मेरे शरीर की स्थिति भी ऐसी ही है जो बाहर से मोटा ताजा दीखता है किन्तु अन्दर से आपके अमिलनजन्य विरह से पूर्णरूपेण खोखला हो चुका है । मेरा मन पूर्णरूपेण विरहावृत्त हो चुका है । अतः मैं आपके सामने हा हा खाता हूँ, विनीत प्रार्थना करता हूँ कि आप मुझे दर्शन देवें ही देवें ।
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सारी रात्रि मैं विरह में डूबी रही तथा आपका चिन्तन करती रही । हे रामजी ! अब तो आप मुझे दर्शन दिखाओ क्योंकि मेरा जन्म=समय व्यर्थ ही व्यतीत हुए जा रहा है ।
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हे प्रभो ! आप साधुओं के हितकारी साथी तथा भक्तों के भाई हैं । आप साधुओं तथा भक्तों को दर्शन देकर सुखी करते रहे हैं । मेरी बारी आने पर आप इतनी देरी मत करिये । अब तत्काल दर्शन दीजिये ।
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मैं आपके पैरों पड़ती हूँ, दीनतायुक्त प्रार्थना करती हूँ कि आप मेरे घर पधारें । मुझे आपसे बिछुड़े हुए बहुत समय हो गया है; मैं आप पर बलि जाती हूँ; न्यौछावर होती हूँ; दर्शन देने में तनिक भी देरी मत करो ।
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हे रामजी ! मेरी प्रार्थना को मानकर मुझ भक्त की सहायता करो । दीन-हीन शरणागत को दर्शन दो । मैं बषनां आप पर बलि जाता हूँ ॥२२॥
(क्रमशः)

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