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*दादू माला तिलक सौं कुछ नहीं, काहू सेती काम ।*
*अन्तर मेरे एक है, अहनिशि उसका नाम ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ भेष का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*समता निदान का अंग १०*
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हिन्दू की हद्द१ न ताव२ तुरक्क३ की,
मुद्रा की मान्य४ न मौन सुहावै ।
माला न मेल नहीं तसबी सब,
गेरू नहीं गति५ भस्म न भावै ॥
गूदड़ झूठ न नग्न नहीं कछु,
मूढ़ मुग्ध६ सू मुंड खुसावै७ ।
पखापख८ प्रीति न भूलै सु भेषों हौ,
रज्जब राम रटै सोई पावै ॥६॥
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प्रभु के भक्तों में न हिन्दुओं की मर्यादा१ होती है, न मुसलमानों३ की शक्ति२ होती है । न मुद्रा की मान्यता४ होती है, न मौन उन्हें प्रिय लगता है ।
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माला से ही उनका मेल नहीं होता है । न तसबीह आदि सब मुसलमानों के वाह्य चिन्ह उन्हें प्रिय लगते और न गेरूं से मुक्ति५ मानते, भस्म रमाना भी उन्हें प्रिय नहीं होता ।
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गूदड़ी रखना भी झूठा दंभ ही मानते हैं, नग्न भी नहीं रहते । कुछ मूर्ख६ प्रतिष्ठा के मोह में पड़कर शिर के बाल उखड़वाते७ हैं, वह भी उन्हें प्रिय नहीं होता है ।
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न भूल से सुन्दर भेषधारियों की पक्ष-विपक्ष८ में प्रीति करते, वे तो निरंतर राम का नाम ही रटते रहते हैं । जो समता पूर्वक नाम चिन्तन करते हैं वे ही नामी को प्राप्त करते हैं ।
(क्रमशः)
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