शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2024

*श्री रज्जबवाणी, सुकृत का अंग ९*

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*दादू राजिक रिजक लिये खड़ा,*
*देवे हाथों हाथ ।*
*पूरक पूरा पास है, सदा हमारे साथ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विश्वास का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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सुकृत का अंग ९
देत हि देत बयो१ जु उगावत, 
भावत है भगवंत भलाई ।
कृपालु कबीर दिई द्विज दोवटी२, 
ताहिं ते ताके जु बालद आई ॥
धान की पोट धन्ने दिई विप्रहि, 
बीज बिना सु कृषी निपजाई ।
हो रज्जब रंग३ रह्यो दिये दान जु, 
दादू दयालु पईसो४ दे पाई ॥१॥
देने से प्रभु देते ही हैं, देखो बोया१ हुआ बीज उगा देता है । दूसरों की भलाई करना भगवान को प्रिय लगता है ?
कृपालु कबीरजी ने ब्राह्मण को खादी२ दी थी उसी से उसके बालद आई थी ।
धन्ने भक्त ने ब्राह्मण को धान की पोट दी थी, इस कारण उसके बिना बीज के भी खेती उत्पन्न हो गई थी । दोनों कथायें प्रसिद्ध हैं ।
हे सज्जनों ! दान देने से दाताओं पर प्रभु का प्रेम३ ही रहा है । देखो, दादूजी ने तो एक पैसा ही प्रभु को देकर कितनी उच्च स्थिति प्राप्त की है ।
कथा - अहमदाबाद के कांकरिया तलाब पर ११वर्ष की अवस्था में दादूजी बालकों के साथ खेल रहे थे, उसी समय भगवान प्रकट होकर आये, उन्हें देखकर अन्य सब बालक भाग गये । दादूजी के पास एक पैसा था उसे ही प्रभु के भेंट किया था ।
(क्रमशः)

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