शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2024

केवल नाँव तुम्हारा

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू दिन दिन राता राम सौं, दिन दिन अधिक स्नेह ।*
*दिन दिन पीवै रामरस, दिन दिन दर्पण देह ॥*
*दादू दिन दिन भूलै देह गुण, दिन दिन इंद्रिय नाश ।*
*दिन दिन मन मनसा मरै, दिन दिन होइ प्रकाश ॥*
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*विनती ॥*
बिरद बहै कुण करम दहै ॥टेक॥
केवल नाँव तुम्हारा । करमाँ का काटणहारा ॥
तैं गज गनिका बध तारे । सो येकै नाँइ उबारे ॥
अजामेल की बारी । तैं काटै करम मुरारी ॥
थंभा मांहि गलार्या । तैं जन प्रहिलाद उबार्या ॥
तेरा नाँव करम की काती । तैं तारी जाति कुजाती ॥
तुझ करम कटै कूँ जाणैं । तेरा बषनां बिरद बखाणैं ॥१६॥
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बिरद = सुयश, प्रण, बडप्पन । बहै = वहन करना, धारण करना । दहै = विनष्ट करे । बध = बधिक, सजना कसाई । गलार्या = गर्जना की । काती = काटने वाली कैंची है । करम कटै = कर्मों को काटने वाला ।
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हे परमात्मन् ! आपके द्वारा अपने प्रण का निर्वाह न करने पर ऐसा और दूसरा कौन है जो कर्मों के जंजाल को विनष्ट कर सके । 
“सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरण व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥” गीता १८/६६॥
 
“सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते ।
अभयं सर्व भूतेभ्यो ददाम्येतत् व्रतं मम ॥” वाल्मीकरामायण ।

“सम्मुख होहिं जीव मोहि जबही ।
जन्म कोटि अघ नासहीं तबही ॥” मानस ॥

सकामकर्म बंधनकारी तथा निष्काम कर्म अबंधनकारी होते हैं । यहाँ कर्मों से तात्पर्य सकामकर्मों से ही है ।
“बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबंधं प्रहास्यसि ॥” गीता २/३९ ॥

हे परमात्मन् ! आपका नाम मात्र ही सर्व कर्मों के बंधनों को काटने वाला है । फिर आपका तो कहना ही क्या है ।
“ब्रह्म राम ते नाम बड बरदायक वरदान ।
रामचरित सतकोटि मँह लिय महेस जिय जान ॥” मानस ॥

नाम जापक प्रहलाद का उद्धार करने के लिये आप पत्थर के स्तंभ में से गर्जना करते हुए प्रकटे और हिरण्यकश्यपु को मार प्रहलाद का उद्धार किया । आपके अकेले नाम ने गज, गनिका और बधिक का उद्धार किया । हे मुरारी ! आपने ही अजामिल का उद्धार अवसर आने पर किया था । 
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वस्तुतः आपका नाम कर्मों रूपी कपड़ों को काटने के लिये कैंची के समान है जिसने उच्च तथा निम्न = सभी जातियों के भक्तों का उद्धार किया है । 
“स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गति” ॥ गीता ९/३२ ॥”
“अपिचेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः” ॥९/३०॥
हे परमात्मन् ! आपको कर्मों को काटने वाला जानकर मैं बषनां भी आपके विरद का गान करता हूँ तथा आपको अपने प्रण की स्मृति दिलाता हूँ कि अन्य भक्तों की भाँति मेरा भी उद्धार कर दीजिये ॥१६॥
(क्रमशः)

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