गुरुवार, 3 अक्तूबर 2024

*४४. रस कौ अंग २१/२४*

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*४४. रस कौ अंग २१/२४*
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कहि जगजीवन रांम रस, बिरह प्रेम बैराग ।
राता माता रमि रह्या, रग रग५ भेट्या राग ॥२१॥
(५. रग रग=नस नस)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिस जीव ने राम स्मरण से विरह प्रेम व वैराग्य भोगा है वह राम में मग्न हो गया उसकी नस नस से राम राम ही निकलता है ।
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पापी पुन्नी६ मुंनि सुंनि, बहुरि७ न आवै जुंनि८ ।
कहि जगजीवनदास निरंतर, भगति प्रेम रस धुंनि ॥२२॥
(६. पुन्नी=पुण्यात्मा) {७. बहुरि=पुनः(पीछे) लौटाना}
{८. जुंनि=योनि(जन्म लेना)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि धर्मात्मा, मुनि जन, साधक ये बार बार संसार में योनि भुगतने नहीं आते इन्हें निरंतर प्रेम भक्ति की धुन या लगन लगी रहती है ।
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जिस रस बीध्या९ प्रांणिया, तिस रस की मांहि प्यास ।
केइ सकति१० केइ सहज हरि, सु कहि जगजीवनदास ॥२३॥
(९. बीध्या=उत्कण्ठित) (१०. सकति=सख्त=कठिन)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिस रस के लिये जीव में उत्कंठा होती है । उसे उसकी ही तृषा होती है । इसे कोइ सहज रुप से व कोइ कठिन साधना से प्राप्त करते हैं ।
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सहज सनेही रांम रत, अगम ठौर११ की आस ।
सक्ति सनेही वीर रस, सु कहि जगजीवनदास ॥२४॥
(११. अगम ठौर=अगम्य स्थान)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो सहज भाव से प्रभु स्नेही वे उसी मार्ग से उस तक पंहुचने की आशा करते हैं । शक्ति उपासक वीर रस से उसे भजते हैं ।
(क्रमशः)

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