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*दादू तो पीव पाइये, करिये मंझे विलाप ।*
*सुनि है कबहुँ चित्त धरि, परगट होवै आप ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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किसने कहा तुम्हें कि रोना कमजोरी का लक्षण है ? मीरा खूब रोयी है! चैतन्य की आंखों से झर—झर आंसू बहे ! नहीं, कमजोरी के लक्षण नहीं हैं—भाव के लक्षण हैं; भाव की शक्ति के लक्षण हैं। और ध्यान रखना, भाव विचार से गहरी बात है। खयाल रखना, आंसू जरूरी रूप से दुःख के कारण नहीं होते। हालांकि लोग एक ही तरह के आंसुओ से परिचित हैं जो दुःख के होते हैं।
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करुणा में भी आंसू बहते हैं। आनंद में भी आंसू बहते हैं। अहोभाव में भी आंसू बहते हैं। कृतज्ञता में भी आंसू बहते हैं। आंसू तो सिर्फ प्रतीक हैं कि कोई ऐसी घटना भीतर घट रही है जिसको सम्हालना मुश्किल है—दुःख या सुख; कोई ऐसी घटना भीतर घट रही है जो इतनी ज्यादा है कि ऊपर से बहने लगी। फिर वह दुःख हो, इतना ज्यादा दुःख हो कि भीतर सम्हालना मुश्किल हो जाये तो आंसुओ से बहेगा। आंसू निकास हैं। या आनंद घना हो जाये तो आनंद भी आंसुओ से बहेगा। आंसू निकास हैं।
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आंसू जरूरी रूप से दुःख या सुख से जुड़े नहीं हैं—अतिरेक से जुड़े हैं। जिस चीज का भी अतिरेक हो जायेगा, आंसू उसी को लेकर बहने लगेंगे। तो जो रोये, उनके भीतर कुछ अतिरेक हुआ होगा; उनके हृदय पर कोई चोट पड़ी होगी; उन्होंने कोई मर्मर सुना होगा अज्ञात का; दूर अज्ञात की किरण ने उनके हृदय को स्पर्श किया होगा; उनके अंधेरे में कुछ उतरा होगा; कोई तीर उनके हृदय को पीड़ा और आह्लाद से भर गया—रोक न पाये वे अपने आंसू।
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और रोना बड़ी शक्ति है। एक बहुत अनूठी दिशा को मनुष्य—जाति ने खो दिया है—विशेषकर मनुष्यों ने खो दिया है, पुरुषों ने, स्त्रियों ने थोड़ा बचा रखा है, स्त्रियां धन्यभागी हैं। मनुष्य की आंख में, पुरुष हो कि स्त्री, एक—सी ही आंसुओं की ग्रंथियां हैं। प्रकृति ने आंसुओ की ग्रंथियां बराबर बनायी हैं। इसलिए प्रकृति का तो निर्देश स्पष्ट है कि दोनों की आंखें रोने के लिए बनी हैं।
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लेकिन पुरुष के अहंकार ने धीरे—धीरे अपने को नियंत्रण में कर लिया है। धीरे— धीरे पुरुष सोचने लगा है कि रोना स्त्रैण है; सिर्फ स्त्रियां रोती हैं। इस कारण पुरुष ने बहुत कुछ खोया है—भक्ति खोयी, भाव खोया। इस कारण पुरुष ने आनंद खोया, अहोभाव खोया। इस कारण पुरुष ने दुःख की भी महिमा खोयी; क्योंकि दुःख भी निखारता है, साफ करता है।
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ओशो: अष्टावक्र: महागीता–(भाग–1) प्रवचन–4.
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