मंगलवार, 15 अक्तूबर 2024

*शरणागति ॥*

🌷🙏 🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🌷🙏 *#बखनांवाणी* 🙏🌷
*https://www.facebook.com/DADUVANI*
*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
.
*शरण तुम्हारी अंतर वास,*
*चरण कमल तहँ देहु निवास ॥*
*अब दादू मन अनत न जाइ,*
*अंतर वेधि रह्यो ल्यौ लाइ ॥*
=============
*शरणागति ॥*
हरि चरणां मैं बासौ म्हारौ । 
भागौ मीणौं माँच सहारौ ॥टेक॥
बाबौ बाहर सगली पालै । 
जिहिं बासै कोइ हाथ न घालै ॥
चहुँ दिसि दौड़ै चहुँ दिसि धावै । 
भागि नासि हरि चरणां आवै ॥
सुर नर साध सिधाँ का डेरा । 
सरणैं राख्या बडा बडेरा ॥
पारब्रह्म मैं परबत पायौ । 
बषनौं वोट तुम्हारी आयौ ॥१८॥
.
वासौ = निवास । मीणौं = मिथ्या । माँच = संसार । बाबौ = मन । सगली = सभी का । बाहर = बहिर्मुख हुआ । जिहिं बासै = जहाँ परमात्मा बसता है । वस्तुतः परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है । “हरि व्यापक सर्वत्र समाना । प्रेम तैं प्रगट होइ मैं जाना ॥” किन्तु प्रारम्भिक अवस्था में साधक परमात्मा को एकदेशीय जानकर ही उसकी आराधना करता है । जैसा गीता में कहा है “ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ॥” १८/६१ ॥ हाथ न घालै = परमात्मा की ओर कोई उन्मुख होता ही नहीं । नासि = नष्ट करके । परबत = पर्वत; यहाँ अद्वितीय । वोट = आश्रय, शरण में ॥
.
बषनांजी इस पद में भी स्वात्मकथन ही कर रहे हैं । वे कहते हैं, मेरा निवास हरि के चरणों में है । अर्थात् मैंने सर्वतोभावेन हरि की शरण का अवलम्बन कर लिया है जिससे मेरे मन में विद्यमान मिथ्या संसार का आश्रय समाप्त हो गया है ।
.
संसारी मन स्वयं को ही स्वतंत्र कर्त्ता-धर्त्ता मानकर संपूर्ण संसार का पालक बनता है किन्तु उस परमात्मा की ओर आकर्षित = उन्मुख नहीं होता है जो समस्त संसार का अभिन्न कर्त्ता-धर्त्ता-संहर्त्ता है ।
.
मन चारों ओर दौड़ता है; चारों ओर रमता है; किन्तु संतुष्ट कहीं नहीं होता है । अंततः अपना अमूल्य समय नष्ट करके भागकर हरि की शरण का आश्रय लेता है ।
.
उस अशरण-शरण दीनबंधु ने बड़े-बड़े पापी और पुण्यात्माओं को अपनी शरण में रखा है । उसकी शरण में देवता, मनुष्य, साधु और सिद्ध सभी का निवास है ।
.
मैंने पर्वत सदृश अशरणशरण अद्वितीय एक परब्रह्म परमात्मा का रहस्य जान लिया है । अतः हे परमात्मन् ! मैं बषनां आपकी शरण में आ गया हूँ । आप मुझे स्वीकार करो ॥१८॥
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें