सोमवार, 14 अक्तूबर 2024

*४४. रस कौ अंग २९/३२*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४४. रस कौ अंग २९/३२*
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कहि जगजीवन रांमजी, घटि घटि घात अनेक ।
आतम अस्थल एक रस, अबिगत परस न एक ॥२९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु हर हृदय में अनेक विचार है जो हरि स्मरण पर चोट करते हैं । और प्रभु का निवास तो आत्मा में है जहां कोइ नहीं पहुंच सकता है ।
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एक निरंजन एक घर, सिव सक्ती दोइ नांम ।
रूप बिलावै६ अरु रहै, जगजीवन सौ रांम ॥३०॥
(६. बिलावै=नष्ट हो)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि परमात्मा का एक घर है जिसके शिव व शक्ति दो नाम है जिसका स्वरूप रहे या नष्ट हो काम तो राम से ही है ।
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जे रसिया लीन रहै, रांम नांम गुंन गाइ ।
कहि जगजीवन सरस सौ, रस मंहि की चाहि ॥३१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो प्रभु नाम रसिक जन है वे स्मरण में ही मग्न रहते हैं उन्हें उस सुन्दर रस में से भी राम रस की, राम स्मरण की प्रबल इच्छा बनी रहती है ।
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एक बासना रांम रस, एक स्वाद एक रस ।
कहि जगजीवन एक भजि, हरि मंहि भोग अनेक ॥३२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि एक ही इच्छा है जो राम नाम की है वह ही स्वाद या आदत बन गया है वह ही आनंद है । संत कहते हैं कि उस एक का ही स्मरण उचित है वैसे पृथ्वी पर अनेक भोग विलास है उनसे बचें ।
(क्रमशः)

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