मंगलवार, 15 अक्तूबर 2024

*(२)नरेन्द्र के प्रति उपदेश*

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*ऐसा कोई एक मन, मरै सो जीवै नाहिं ।*
*दादू ऐसे बहुत हैं, फिर आवै कलि माहिं ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(२)नरेन्द्र के प्रति उपदेश*
दिन के नौ बजे का समय है । श्रीरामकृष्ण मास्टर के साथ वार्तालाप कर रहे हैं । कमरे में शशि भी हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - नरेन्द्र और शशि ये दोनों क्या कह रहे थे ? क्या विचार कर रहे थे ?
मास्टर – (शशि से) – क्या बातें हो रही थीं, जी ?
शशि – शायद निरंजन ने कहा है ?
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श्रीरामकृष्ण – ईश्वर नास्ति-अस्ति, ये सब बातें हो रही थीं ?
शशि - (सहास्य) - नरेन्द्र को बुलाऊँ ?
श्रीरामकृष्ण – बुला ।
नरेन्द्र आकर बैठे ।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - तुम भी कुछ पूछो । क्या बातें हो रही थीं ? – बता ।
नरेन्द्र - पेट कुछ ठीक नहीं है । उन बातों को अब और क्या कहूँ ?
श्रीरामकृष्ण - पेट अच्छा हो जायगा ।
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मास्टर - (सहास्य) - बुद्ध की अवस्था कैसी है ?
नरेन्द्र - क्या मुझे वह अवस्था हुई है जो मैं बतलाऊँ ?
मास्टर - ईश्वर हैं, इस सम्बन्ध में वे क्या कहते हैं ?
नरेन्द्र - ईश्वर हैं, यह बात कैसे कह सकते हो ? तुम्हीं इस संसार की सृष्टि कर रहे हो । बर्कले ने क्या कहा है, जानते हो ?
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मास्टर - हाँ, उन्होंने कहा है, 'Esse is percipi' (बाह्य वस्तुओं का अस्तित्व उनके अनुभव होने पर ही निर्भर है)। जब तक इन्द्रियों का काम चल रहा है, तभी तक संसार है ।
श्रीरामकृष्ण - न्यांगटा कहता था, मन ही से संसार की उत्पत्ति है और मन ही में उनका लय भी होता है ।
“परन्तु जब तक 'मैं' है तब तक सेव्य-सेवक का भाव ही अच्छा है ।”
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नरेन्द्र - (मास्टर से) - विचार अगर करो, तो ईश्वर हैं यह कैसे कह सकते हो ? और विश्वास पर अगर जाओ तो सेव्यसेवक मानना ही होगा । यह अगर मानो - और मानना ही होगा - तो दयामय भी कहना होगा ।
"तुमने केवल दुःख को ही सोच रखा है । उन्होंने जो इतना सुख दिया है, इसे क्यों भूल जाते हो ? उनकी कितनी कृपा है ! उन्होंने हमें बड़ी बड़ी चीजें दी हैं - मनुष्य-जन्म, ईश्वर को जानने की व्याकुलता और महापुरुष का संग । 'मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुष-संश्रयः ।' " (सब लोग चुप हैं)
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श्रीरामकृष्ण – (नरेन्द्र से) – परन्तु मुझे बहुत साफ अनुभव होता है कि भीतर कोई एक है ।
राजेन्द्रलाल दत्त आकर बैठे । वे होमिओपैथिक मत से श्रीरामकृष्ण की चिकित्सा कर रहे हैं । औषधि आदि की बातें हो जाने पर, श्रीरामकृष्ण मनोमोहन की ओर उँगली के इशारे से बतला रहे हैं ।
डाक्टर राजेन्द्र - ये मेरे ममेरे भाई के लड़के हैं ।
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नरेन्द्र नीचे आये हैं । आप ही आप गा रहे हैं - (भावार्थ) - "प्रभो, तुमने दर्शन देकर मेरा समस्त दुःख दूर कर दिया है और मेरे प्राणों को मोह लिया है । तुम्हें पाकर सप्त लोक अपना दारुण शोक भूल जाते हैं, फिर, नाथ, मुझ अति दीन-हीन की बात ही क्या ? ....
नरेन्द्र को पेट की कुछ शिकायत है, मास्टर से कह रहे हैं - 'प्रेम और भक्ति के मार्ग में रहने पर देह की ओर मन आता है । नहीं तो मैं हूँ कौन ? मैं न मनुष्य हूँ, न देवता हूँ; न मेरे सुख हैं, न दुःख हैं ।'
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रात के नौ बजे का समय हुआ । सुरेन्द्र आदि भक्तों ने श्रीरामकृष्ण को फूलों की माला लाकर समर्पण की । कमरे में बाबूराम, सुरेन्द्र, लाटू, मास्टर आदि हैं । श्रीरामकृष्ण ने सुरेन्द्र की माला स्वयं अपने गले में धारण कर ली । सब लोग चुपचाप बैठे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण एकाएक सुरेन्द्र को इशारे से बुला रहे हैं । सुरेन्द्र जब पलंग के पास आये, तब उस प्रसादी माला को लेकर श्रीरामकृष्ण ने सुरेन्द्र को पहना दिया ।
माला पाकर सुरेन्द्र ने प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण फिर उन्हें इशारा करके पैरों पर हाथ फेरने के लिए कह रहे हैं । कुछ देर तक सुरेन्द्र ने उनके पैर दबाये ।
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श्रीरामकृष्ण जिस कमरे में हैं, उसकी पश्चिम ओर एक पुष्करिणी(तालाब) है । इस तालाब के घाट में कई भक्त खोल करताल लेकर गा रहे हैं । श्रीरामकृष्ण ने लाटू से कहला भेजा, 'तुम लोग कुछ देर हरिनाम-कीर्तन करो ।'
मास्टर और बाबूराम आदि अभी भी श्रीरामकृष्ण के पास बैठे हैं । वे वहीं से भक्तों का गाना सुन रहे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण गाना सुनते सुनते बाबूराम और मास्टर से कह रहे हैं, 'तुम लोग नीचे जाओ । उनके साथ मिलकर गाना और नाचना ।' वे लोग भी नीचे आकर कीर्तनवालों के साथ गाने लगे ।
कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण ने फिर आदमी भेजा । उससे उन्होंने कीर्तन के खास-खास पद गवाने के लिए कह दिया ।
कीर्तन समाप्त हो गया । सुरेन्द्र भावावेश में आकर गा रहे हैं । गाना शंकर के सम्बन्ध में है ।
(क्रमशः)

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