बुधवार, 2 अक्तूबर 2024

*श्री रज्जबवाणी, उपदेश का अंग ८*

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*सब ही मृतक देखिये, क्यों कर जीवैं सोइ ।*
*दादू साधु प्रेम रस, आणि पिलावे कोइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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उपदेश का अंग ८
हीरे के दीवे सौ आगि न लागे जु,
चित्र को सिंह कहा कहो खाई ।
जरी१ जेवरी सौं पर्य्यंक बुने कोउ,
विभ्रम२ नीर कहा तिस जाई ॥
मकरी के सूत सितारो३ न नीपजे,
शीत के कोट को४ ओट रहाई ।
हो रज्जब साधु को लोग न चाहै,
जगत्रय संत कहा करे भाई ॥८॥५५
हीरे के दीपक से अग्नि नहीं लगता और कहो, चित्र का सिंह क्या खाता है ? जली१ हुई रस्सी से कोई पलंग बुन सकता है क्या ? मृग तृष्णा२ के जल से क्या प्यास मिट सकती है ?
मकड़ी के सूत से चमक३दार वस्त्र नहीं उत्पन्न होता । बर्फ वा कुहरा के किले की वा गंधर्व नगर की ओट से कौन४ सुरक्षित रह सकता है ?
वैसे ही हे भाई ! यदि सच्चे संत की शरण लोक नहीं चाहते तो माया रूप मिथ्या प्रपंच से उसकी रक्षा हो नहीं सकती, ओर संत तो त्रय लोक रूप मिथ्या प्रपंच से उनकी रक्षा हो नहीं सकती, और संत तो त्रय लोक रूप जगत का करैं ही क्या ? उन्हें उसकी आवश्यकता नहीं है । वे तो निरंतर परब्रह्म परायण ही रहते हैं ।
(क्रमशः)

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