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*दादू सबको बणिजै खार खल,*
*हीरा कोई न लेय ।*
*हीरा लेगा जौहरी,*
*जो माँगै सो देय ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(२)श्रीरामकृष्ण की उच्च अवस्था*
श्रीरामकृष्ण मास्टर से बातचीत कर रहे हैं । कामिनी के सम्बन्ध में अपनी अवस्था बतला रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - ये लोग कहते हैं, कामिनी और कांचन के बिना चल नहीं सकता । मेरी क्या अवस्था है, यह ये लोग नहीं जानते ।
"स्त्रियों की देह में हाथ लग जाता है तो ऐंठ जाता है, वहाँ पीड़ा होने लगती है । “यदि आत्मीयता के विचार से किसी के पास जाकर बातचीत करने लगता हूँ तो बीच में एक न जाने किस तरह का पर्दा-सा पड़ा रहता है; उसके उस तरफ जाया ही नहीं जाता ।
"कमरे में अकेला बैठा हुआ हूँ, ऐसे समय अगर कोई स्त्री आये तो एकदम बालक की-सी अवस्था हो जाती है और उसे माता की दृष्टि से देखता हूँ ।"
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मास्टर निर्वाक् होकर श्रीरामकृष्ण के पास बैठे हुए ये सब बातें सुन हैं | कुछ दूर भवनाथ के साथ नरेन्द्र बातचीत कर रहे हैं । भवनाथ ने विवाह किया है, अब नौकरी की खोज में हैं । काशीपुर के बगीचे में श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए अधिक नहीं आ सकते । श्रीरामकृष्ण भवनाथ के लिए बड़ी चिन्ता किया करते हैं । कारण, भवनाथ संसार में फँस गये हैं । भवनाथ की उम्र २३-२४ वर्ष की होगी ।
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श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से) - उसे खूब हिम्मत बँधाते रहना ।
नरेन्द्र और भवनाथ श्रीरामकृष्ण की ओर देखकर मुस्कराने लगे । श्रीरामकृष्ण इशारा करके फिर भवनाथ से कह रहे हैं - "खूब वीर बनो । घूँघट के भीतर अपनी स्त्री के आँसू देखकर अपने को भूल न जाना । ओह ! औरतें कितना रोती हैं ! - वे तो नाक छिनकने में भी रोती हैं !
(नरेन्द्र, भवनाथ और मास्टर हँसते हैं ।)
"ईश्वर में मन को अटल भाव से स्थापित रखना । वीर वह है, जो स्त्री के साथ रहने पर भी उससे प्रसंग नहीं करता । स्त्री के साथ केवल ईश्वरीय बातें करते रहना ।"
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कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण फिर इशारा करके भवनाथ से कह रहे हैं - “आज यहीं भोजन करना ।"
भवनाथ - जी, बहुत अच्छा । आप मेरी चिन्ता बिलकुल न कीजिये ।
सुरेन्द्र आकर बैठे । महीना वैशाख का है । भक्तगण सन्ध्या के बाद रोज श्रीरामकृष्ण को मालाएँ पहनाया करते हैं । सुरेन्द्र चुपचाप बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण ने प्रसन होकर उन्हें दो मालाएँ दीं । सुरेन्द्र ने प्रणाम करके मालाओं को पहले सिर पर धारण किया, फिर गले में डाल लिया ।
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सब लोग चुपचाप बैठे हुए श्रीरामकृष्ण को देख रहे हैं । सुरेन्द्र उन्हें प्रणाम करके खड़े हो गये । वे चलनेवाले हैं । जाते समय भवनाथ को बुलाकर उन्होंने कहा, 'खस की टट्टी लगा देना ।'
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*(३)श्रीरामकृष्ण तथा हीरानन्द*
श्रीरामकृष्ण ऊपरवाले कमरे में बैठे हैं । सामने हीरानन्द, मास्टर तथा दो-एक भक्त और हैं । हीरानन्द के साथ दो-एक मित्र भी आये हैं । हीरानन्द सिन्ध में रहते हैं । कलकत्ते के कॉलेज में अध्ययन समाप्त करके देश चले गये थे, अब तक वहीं थे । श्रीरामकृष्ण की बीमारी का समाचार पाकर उन्हें देखने के लिए आये हैं । सिन्ध देश कलकत्ते से कोई बाईस सौ मील होगा । हीरानन्द को देखने के लिए श्रीरामकृष्ण भी उत्सुक रहते थे ।
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श्रीरामकृष्ण हीरानन्द की ओर उँगली उठाकर मास्टर को इशारा कर रहे हैं । मानो कह रहे हैं - 'यह बड़ा अच्छा लड़का है ।'
श्रीरामकृष्ण - क्या तुमसे परिचय है ?
मास्टर - जी हाँ, है ।
श्रीरामकृष्ण - (हीरानन्द और मास्टर से) - तुम लोग जरा बातचीत करो, मैं सुनूँ ।
मास्टर को चुप रहते हुए देखकर श्रीरामकृष्ण ने पूछा - "क्या नरेन्द्र है ? उसे बुला लाओ ।"
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नरेन्द्र ऊपर श्रीरामकृष्ण के पास आकर बैठे ।
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र और हीरानन्द से) - तुम दोनों जरा बातचीत तो करो ।
हीरानन्द चुप हैं । बड़ी देर तक टाल-मटोल करके उन्होंने बातचीत करना आरम्भ किया ।
हीरानन्द - (नरेन्द्र से) - अच्छा, भक्त को दुःख क्यों मिलता है ?
हीरानन्द की बातें बड़ी ही मधुर हैं । जिन-जिन लोगों ने उनकी बातें सुनीं, उन सब को यह जान पड़ा कि इनका हृदय प्रेम से भरा है ।
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नरेन्द्र - इस संसार का प्रबन्ध देखकर यह जान पड़ता है कि इसकी रचना किसी शैतान ने की है । मैं इससे अच्छे संसार की सृष्टि कर सकता था ।
हीरानन्द - दुःख के बिना क्या कभी सुख का अनुभव होता है ?
नरेन्द्र - मैं यह नहीं कहता कि संसार की सृष्टि किस उपादान से की जाय, किन्तु मेरा मतलब यह है कि संसार का अभी जो प्रबन्ध दीख पड़ रहा है, वह अच्छा नहीं ।
"परन्तु एक बात पर विश्वास करने पर सब निपटारा हो जायगा । सब ईश्वर हैं, यह विश्वास किया जाय तो उलझन सुलझ जायेगी । ईश्वर ही सब कुछ कर रहे हैं ।"
हीरानन्द - यह कहना सहज है ।
(क्रमशः)
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