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*दादू वाणी प्रेम की, कमल विकासै होहि ।*
*साधु शब्द माता कहैं, तिन शब्दों मोह्या मोहि ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*इन्दव-*
*श्रीधर स्वामीजी की पद्य टीका*
*पंडित व्राज१ रहे सु बड़े बड़,*
*भागवतम् कर टिप्पण२ रीजै ।*
*होत विचार पुरी हु बनारस,*
*जो सबके मन भाय लिखीजै ॥*
*तो सु प्रमाण करै विन्दु माधव,*
*बात भली धरि मंदिर दीजै ।*
*जाय धेरै हरि हाथन से करि,*
*दे सरवोपरि चालत धीजै३ ॥४२२॥*
जिस समय श्रीधर स्वामी ने भागवत की टीका लिखी थी, उस समय और भी बड़े बड़े पंडित देश में विराजे१ हुये थे । उन विद्वानों ने भी भागवत पर टीकायें२ लिखी थीं । वे सभी अपनो अपनी टीका की अन्य टीकाओं से श्रेष्ठ बताते हुए तथा अपनी बुद्धि की विचित्रता पर प्रसन्न होते हुये परस्पर विवाद करते थे ।
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फिर एक समय काशीपुरी में सब टीकाकर इकट्ठे हुए और कौन सी टीका श्रेष्ठ है-इस निर्णय के लिये सभा की । यह प्रस्ताव आया कि जो सबको प्रिय लगे वहीं बेह है ऐसा लिख दिया जाय । किन्तु यह तो पास नहीं हुआ, कारण सबको अपनी अपनी ही प्रिय लगती थी ।
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तब अन्तिम निर्णय हुआ कि इस सभा का सर्व संमति से महापंच भगवान् विन्दुमाधवजी को मान लिया जाय और ये जिसको प्रामाणिक बता दें उसी को श्रेष्ठ मान लिया जाय । सबने इस बात को अच्छी मान कर स्वीकार कर लिया । प्रथम सब टीका ग्रंथ मंदिर में रख दें ।
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तब सबने मध्याह्न भोग के बाद अपने अपने टीका ग्रंथ मंदिर में बराबर रख करके प्रार्थना करते हुये कि कौन टीका ग्रथ श्रेष्ठ है इसका निर्णय आप कृपा करके कर दीजिये । मंदिर बन्द कर दिया गया । दो मुहूर्त (चार घड़ी) के बाद मंदिर खोलकर देखा तो श्रीधरी टीका का ग्रन्थ सब टीकाओं के ऊपर रखा था और उस पर लिखा था- श्रीधरी सर्वश्रेष्ठ है । तब सबने उसी पर विश्वास किया और वही अधिक चली अर्थात् उसका ही अधिक प्रचार३ हुआ ।
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विशेष विवरण - श्रीधर स्वामी ईसा की दसवीं या ग्यारहवीं शताब्दी में भारत के किसी दक्षिण प्रदेश में जन्मे थे । इनके गाँव, माता पिता, जन्म तिथि आदि का निश्चित पता नहीं किसी इनके बचपन में ही माता पिता का देहान्त हो गया था । पढ़ाई की व्यवस्था नहीं होने से इनकी प्रतिभा प्रस्फुट नहीं हो सकी थी ।
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एक दिन ये एक ऐसे पात्र में तेल लिये जा रहे थे जिस का बुद्धिमान उपयोग नहीं करते हैं । उसी समय उस नगर का राजा और मंत्री परस्पर परमार्थ की चर्चा करते हुये उसी मार्ग से घूमने जा रहे थे । मंत्री कह रहा था-"भगवान् की भक्ति से अयोग भी सुयोग हो जाता है । कुपात्र भी सत्पात्र हो जाता है ।" उसी समय राजा की दृष्टि श्रीधर बालक पर पड़ी । राजा ने कहा- "क्या यह बालक हरि भक्ति से बुद्धिमान् हो सकता है ?" मंत्री ने बड़े विश्वास के साथ कहा- अवश्य ।
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हरि इच्छा ऐसी ही थी । बालक को परीक्षा के लिये हरि आराधना में लगाया । नृसिंह की उपासना कराई गई, भगवान् के दर्शन देकर इनको वेदादि का संपूर्ण ज्ञान और अनन्य भक्ति का वर दिया । फिर अन्तर्धान हो गये । फिर तो बड़े बड़े विद्वान् इनके आगे नतमस्तक होने लगे । राजा के यहाँ इनकी बड़ी प्रतिष्ठा हुई ।
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विवाह भी हुआ परन्तु इनका मन सब कुछ त्याग कर भजन करने की इच्छा करता था । किन्तु स्त्री की अनाथ दशा का स्मरण करके रुक जाते थे । कुछ दिन बाद इनकी स्त्री गर्भवती हुई और बच्चा जनमते ही मर गई । अब बच्चे के पालन-पोषण की चिन्ता लग गई । एक दिन गीता पाठ करते समय 'योगक्षेमं वहाम्यहम्' पाठ आया तब कुछ विश्वास दृढ़ हुआ ।
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बच्चे को भगवान् के आश्रय छोड़ कर भजन करने का निश्चय किया । घर से चलते समय फिर बच्चे पर दृष्टि पड़ी । उस शिशु को देखकर हृदय द्रवित हो गया । उसी समय इनके मकान की छत से एक पक्षी का अण्डा इनके सामने पड़ा और फूट गया । उससे बच्चा निकला और धीरे धीरे अपना मुख हिलाने लगा ।
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श्रीधरजी ने सोचा यह भूखा है इसको कुछ नहीं मिला तो मर जायगा । यह देख कर फिर हृदय में बल आ गया । ये सब कुछ भगवान् के भरोसे छोड़ कर चल दिये । काशी जाकर साधन द्वारा आत्मा का साक्षात्कार किया । फिर इनने गीता, भागवत और विष्णुसहस्रनाम पर टीकाए लिखीं, जो सर्वमान्य हैं । इनका जीवन भगवद्भजन और ग्रन्थों के पर्यालोचन में व्यतीत हुआ था ॥
(क्रमशः)
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