बुधवार, 13 नवंबर 2024

*(४)गुह्य कथा*

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*दादू देखौं निज पीव को, और न देखौं कोइ ।*
*पूरा देखौं पीव को, बाहिर भीतर सोइ ॥७५॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(४)गुह्य कथा*
श्रीरामकृष्ण अर्न्तर्मुख हैं । पास ही हीरानन्द और मास्टर बैठे हैं । कमरे में सन्नाटा छाया हुआ है । श्रीरामकृष्ण की देह में घोर पीड़ा हो रही है । भक्तगण जब एक-एक बार देखते हैं, तब उनका हृदय विदीर्ण हो जाता है । परन्तु श्रीरामकृष्ण ने सब को दूसरी बातों में डालकर उधर से मन हटा रखा है । बैठे हुए हैं, श्रीमुख से प्रसन्नता टपक रही है ।
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भक्तों ने फूल और माला लाकर समर्पण किया है। फूल लेकर कभी सिर पर चढ़ाते हैं, कभी हृदय से लगाते हैं, जैसे पाँच वर्ष का बालक फूल लेकर क्रीड़ा कर रहा हो । जब ईश्वरी भाव का आवेश होता है, तब श्रीरामकृष्ण कहा करते हैं कि शरीर में महावायु ऊर्ध्वगामी हो रही है । महावायु के चढ़ने पर ईश्वरानुभव होता है । यह बात सदा वे कहा करते हैं । अब श्रीरामकृष्ण मास्टर से बातचीत कर रहे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - वायु कब चढ़ गयी, मुझे मालूम भी नहीं हुआ ।
“इस समय बालकभाव है, इसीलिए फूल लेकर इस तरह किया करता हूँ । क्या देख रहा हूँ, जानते हो ? शरीर मानो बाँस की कमानियों का बनाया हुआ है और ऊपर से कपड़ा लपेट दिया गया है । वही मानो हिल रहा है । भीतर कोई है इसीलिए हिल रहा है ।”
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“जैसे बिना बीज और गूदे का कद्दू । भीतर कामादि आसक्तियाँ नहीं हैं, सब साफ है । और –”
श्रीरामकृष्ण को बातचीत करते हुए कष्ट हो रहा है । बहुत ही दुर्बल हो गये हैं । वे क्या कहने जा रहे हैं इसका अनुमान लगाकर मास्टर शीघ्र ही कह उठे - “और भीतर आप ईश्वर को देख रहे हैं ।”
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श्रीरामकृष्ण - भीतर बाहर दोनों जगह देख रहा हूँ - अखण्ड सच्चिदानन्द ।
सच्चिदानन्द इस शरीर का आश्रय लेकर इसके भीतर भी हैं और बाहर भी । यही मैं देख रहा हूँ ।
मास्टर और हीरानन्द यह ब्रह्मदर्शन की बात सुन रहे हैं । कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण उनकी ओर सस्नेह दृष्टि करके बातचीत करने लगे ।
(क्रमशः)

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