बुधवार, 13 नवंबर 2024

*स्वात्मकथन ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*यहु घट बोहित धार में, दरिया वार न पार ।*
*भैभीत भयानक देखकर, दादू करी पुकार ॥*
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*स्वात्मकथन ॥*
मेरा मन यौं डरै रे, अैसा डरै न कोइ ।
अबही तैं डरता रहौं, ज्यूँ डर बहुरि न होइ ॥टेक॥
सुणौं नहीं संसार की रे, डरताँ कोई बाइ ।
कानि कथा हरि की करी, मति या बीसरि जाइ ॥
अब डरताँ बोलौं नहीं, और नहीं डर कोइ ।
रसना बाणी राम की, मति दूजी बाणी होइ ॥
पाणी पीवौं न अब डरौं रे, डर मेरा मन माहिं ।
हरि अखि्यर हिरदै लिख्या, मति वै धोया जाहिं ॥
इन बातनि थैं हूँ डर्यौ रे, सो तुम्ह करौ सहाइ ।
सरणैं राखौ रामजी, ज्यूँ बषनां का डर जाइ ॥२४॥
मेरा मन पूर्व में किये कुकर्मों पर विचार कर-करके भयंकर रूप से डरता है किन्तु संसार के अन्य लोग बिल्कुल डरते नहीं है । मैंने सद्गुरु महाराज का उपदेस सुनकर अब से ही डरना प्रारम्भ कर दिया है जिससे कि आगे पुनः न डरना पड़े ।
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मैं डरता हुआ संसार के संसारासक्त लोगों की कोई भी बाइ = बात अब सुनता नहीं हूँ क्योंकि मुझे डर है कि परमात्मा ने जो कान संसार की बातें न सुनने के लिये बनाकर हरि-कथा सुनने के लिये बनाये हैं, वे संसार की चिकनी-चुपड़ी बातों को सुनकर परमात्म-कथा सुनना न बंद कर दें ।
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अब मैं संसारियों से डर के कारण बोलता भी नहीं हूँ क्योंकि परमात्मा ने जो वाणी रामजी का गुणानुवाद गाने के लिये दी है वह रामजी का गुणानुवाद गाना छोड़कर संसारी = वाणी = संसार की बातें करने में न लग जाये ।
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मैं अब डर के कारण पानी भी नहीं पीता हूँ क्योंकि मेरे मन में डर है कि मेरे हृदय में जो राम-नाम अक्षर लिखे हुए हैं, वे कहीं धूल न जायें । बषनांजी कहते हैं, ऊपर कही हुई बातों के कारण में बहुत डरा हुआ हूँ ।
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अतः हे परम प्रियतम परमात्मा ! मेरी सहायता करो; मुझे अपनी शरण में रहने का स्थान दो जिससे मेरा डर चला जाये । गीता में सात्विक सम्पत्तियों की चर्चा करते समय सर्वप्रथम अभय को ही गिनाया गया है । जबतक भक्त/साधक के मन में भय विद्यमान रहेगा तब तक वह परमात्मा की ओर अनन्यभाव से मुड़ नहीं पायेगा । अतः भक्त का प्रथम लक्षण निर्भय = डर रहित होना है । (“अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोग व्यवस्थिति ।” १६/१)
(क्रमशः)

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