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*🌷🙏 卐 सत्यराम सा 卐 🙏🌷*
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*सत्संगति मगन पाइये,*
*गुरु प्रसादैं राम गाइये ॥*
*आकाश धरणी धरीजे,*
*धरणी आकाश कीजे,*
*शून्य माहिं निरख लीजे ॥*
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*साभार ~ @Krishna Krishna*
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*एकांत..*
वही व्यक्ति स्वयं के भीतर पहुंच सकता है, जो नितांत अकेला होने को राजी हो। और वहां हमारी छाती कंपती है। हम भीड़-भाड़ के आदी हैं। हमें संगी-साथी चाहिए। जरा अकेले छूट जाते हैं, बेचैनी होती है। अकेलापन काटता है। अखबार पढ़ने लगते हैं, रेडियो खोल कर बैठ जाते हैं, टेलीविजन देखने लगते हैं। रोटरी-क्लब चले, लायंस-क्लब चले। होटल में जाकर बैठ जाएंगे। कुछ करेंगे। कहीं उलझाएंगे अपने को। क्षण भर अपने को अकेला न छोड़ेंगे।
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और जो अपने को अकेला नहीं छोड़ सकता, वह कभी अपने को पहचान न सकेगा। और अपने को इतना अकेला छोड़ना होता है कि व्यक्ति तो रह ही न जाएं, विचार भी न रह जाएं, वासनाएं भी न रह जाएं, स्मृतियां भी न रह जाएं। भीतर कोई धुआं न रह जाए, कोई ऊहापोह न रह जाए। भीतर बिलकुल ही सन्नाटा छा जाए। यूं गहन सन्नाटा, ऐसी चुप्पी, कि टूटे न टूटे ! तब कहीं कोई अपने में डुबकी लगा पाता है। और तब पहचान होती है। उस पहचान के बाद जीवन में क्रांति हो जाती है।
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तुम ठीक कहते हो पार्थ प्रीतम: ‘ढूंढता हुआ तुम्हें पहुंच गया कहां-कहां !’
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वह आसान था। सभी यही कर रहे हैं। चल पड़े हैं, खोज में निकले हैं। ऐसे मन को सांत्वना भी मिलती रहती है कि हम खोजी हैं। कोई शास्त्रों में खोज रहा है, कोई सत्यों को सिद्धांतों में खोज रहा है, कोई शब्दों की जोड़-तोड़ में खोज रहा है, कोई तर्कों के जाल में खोज रहा है। कोई पूजा में, पाठ में, अंधविश्वासों में, तरह-तरह की धारणाओं में। सभी खोजी हैं इस अर्थ में। मगर शून्य में कोई भी नहीं खोज रहा है। क्योंकि जो शून्य में खोजता है, तत्क्षण पा जाता है। शून्य में खोजने का अर्थ होता है: खोजने वाला ही मिट जाए, तब खोज पूरी होती है।
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यह खोज बड़ी अनूठी है। यह खोज बड़ी विरोधाभासी है। यह यूं है जैसे पानी की बूंद सागर में उतर जाए। देखा है कभी सुबह-सुबह ओस की बूंद को कमल के पत्तों पर सूरज की रोशनी में चमकते हुए ? अब सरकी तब सरकी ! महावीर ने तो कहा ही है: आदमी का जीवन ऐसे है जैसे ओस की बूंद, घास के तिनके पर सधी; जरा सा झोंका हवा का आया कि गई। जरा पत्ता कंपा कि झील में डूब जाएगी। यूं मृत्यु तो तुम्हें डुबा ही लेगी। मृत्यु के पहले जो डूब सकता है, वही साहसी है, वही संन्यासी है।
ओशो ~ साहेब मिल साहेब भये, प्रवचन 5
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