शनिवार, 30 नवंबर 2024

प्रीति प्रेम ॥

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*प्रीति जु मेरे पीव की, पैठी पिंजर मांहि ।*
*रोम-रोम पीव-पीव करै, दादू दूसर नांहि ॥*
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प्रीति प्रेम ॥
जोडौंगा रे जोडौंगा, हरि स्यूँ प्रीति न तोडौंगा, रे जोडौंगा ॥टेक॥
जोति पतंगा जैसै जोड़ै, जीव जलै पै अंग न मोड़ै ।
मिरग नाद सुनि अैसैं बाँछै, पिंड परै परि पैरि न खाँचै ॥
कतियारी ज्यूँ कात्या लोडै, ज्यूँ ज्यूँ तूटै त्यूँ त्यूँ जोड़ै ।
यूँ करि बषनां जोड़ा जोड़ी, हरि स्यूँ जोड़ि आन स्यूँ तोड़ी ॥२५॥
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बषनांजी कहते हैं, मैं परमप्रियतम-परमात्मा से अखंड प्रेम-प्रीति का सम्बन्ध जोडूंगा । निश्चय ही जोडूंगा । कभी भी हरि से सम्बन्ध नहीं तोडूंगा । अरे ! मैं तो हरि से ही सम्बन्ध जोडूंगा ।
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मैं प्रीतिमय सम्बन्ध उसीप्रकार जोडूंगा जिस प्रकार पतंगा ज्योति से जोड़ता है । पतंगे का शरीर जल जाता है किन्तु वह प्रियतम ज्योति की निरपेक्षता का तनिक भी ख्याल न करते हुए शरीर को अग्नि के पास से हटाकर उसकी रक्षा के लिये लेशमात्र भी प्रयत्न नहीं करता है ।
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मृग, नाद को सुनकर उसको सुनते रहते की इतनी प्रबल बाँछै = बांछा करता है और उसको सुनने में इतना मग्न हो जाता है कि शिकारी द्वारा उसका शिकार कर लेने की तैयारी को देखकर भी वह एक पैर = डग भी वहाँ से आगे-पीछे नहीं करता ।
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सूत कातने वाली कतवारी स्त्रियाँ चरखे(कात्या) को घुमाती(लोडै) ही रहती हैं चाहे उसमें कितनी ही बार सूत क्यों न टूटे । वे टूटे हुस सूत को बारबार जोड़ती ही रहती हैं ।
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बषनांजी कहते हैं, मैंने भी उक्त वर्णित तथ्यों/बातों पर विचार करके परमात्मा से सम्बन्ध स्थापित किया हैं । मैंने हरि-परमात्मा से सम्बन्ध जोड़कर संसार से सम्बन्ध तोड़ लिया है ॥२५॥
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इस पद में “समर्थारति” का वर्णन हुआ है । समर्थारति में प्रीति एकतरफी होती है । प्रेमी की भावना “तत्सुखी सुखित्वम्” प्रियतम के सुख में सुख तथा दुख में दुख का अनुभव करने की होती है । साधारणी रति में स्वसुखप्राप्ति की आकांक्षा रहती है जैसी कुब्जा में थी । समञ्जसा में प्रियतम को सुखी करने के साथ-साथ स्वयं को भी सुखी करने की भावना रहती है । जैसी रुकमणी, सत्यभामा आदि रानियों में थी ।
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किन्तु समर्थारति गोपियों जैसी होती हैं जिसमें गोपियाँ श्रीकृष्ण से द्वारका जाने के उपरान्त भी उसी प्रकार प्रेम करती रहीं जिस प्रकार ब्रज के कृष्ण से करती थीं । श्रीकृष्ण का द्वारिका में जाने के उपरान्त गोपियों के प्रति व्यवहारतः निरपेक्ष भाव हो गया था । फिर भी गोपियों की रति एक तरफी श्रीकृष्ण के प्रति बनी ही रही । इसीलिये उसे श्रेष्ठ भी माना गया है ॥ “यथा व्रजगोपिकानां ।” नारदभक्तिसूत्र ॥”
(क्रमशः)

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