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*भ्रम कर्म जग बंधिया, पंडित दिया भुलाइ ।*
*दादू सतगुरु ना मिले, मारग देइ दिखाइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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ध्यान एक औषधि की भांति है। पहले तुम्हें बीमारी उत्पन्न करनी होगी, तब ध्यान की जरूरत होगी। यदि वहां रोग ही नहीं है तो ध्यान की जरूरत नहीं है। और यह कोई संयोग नहीं कि दवा(मेडिसिन) और ध्यान(मेडिटेसन) शब्द समान मूल से आते हैं। वह शब्द है मेडिसिन अर्थात उपचार करने के गुण पास होना। प्रत्येक बच्चा बुद्धिमान होकर ही जनम लेता है।
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और जिस क्षण बच्चे का जन्म होता है, हम उस पर आक्रमण कर देते हैं, और उसकी बुद्धिमत्ता को नष्ट कर देना प्रारम्भ कर देते हैं, क्योंकि राजनैतिक ढांचे के लिए, सामाजिक ढांचे के लिए और धार्मिक ढांचे के लिए बुद्धिमत्ता खतरनाक है। यह पोप के लिए खतरनाक है, यह पुरी के शंकराचार्य के लिए खतरनाक है, यह सभी धर्मों के लिए मठाधीशों के लिए खतरनाक है, यह नेता के लिए खतरनाक है, जो स्थिति अभी है उसके लिए और सामाजिक व्यवस्था के लिए खतरनाक है।
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बुद्धिमत्ता स्वाभाविक रूप से विद्रोही है। बुद्धिमत्ता को पराधीन बनने के लिए विवश नहीं किया जा सकता। बुद्धिमत्ता बहुत हठी और वैयक्तिक होती है। बुद्धिमत्ता को एक यांत्रिक अनुकरण में नहीं बदला जा सकता। लोगों की मौलिकता को नष्ट करना है और उन्हें उनकी कार्बन कापी में बदलना है, अन्यथा पृथ्वी पर जो सभी व्यर्थ की मूर्खता विद्यमान है, उसका होना असम्भव हो जायेगा।
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चूंकि पहले तुम्हें बुद्धिहीन बनाना है, तो तुम एक नेता की आवश्यकता होगी, अन्यथा वहां किसी नेता अथवा वहां किसी नेता अथवा पथ प्रदर्शक की ज़रूरत ही नहीं होती, तुम्हें किसी व्यक्ति का अनुसरण क्यों करना चाहिए ? तुम अपनी बुद्धिमत्ता का अनुसरण करोगे। यदि कोई व्यक्ति पथप्रदर्शक बनना चाहता है, तो उसे एक चीज़ करनी होगी उसे किसी तरह तुम्हारी बुद्धिमत्ता को नष्ट करना होगा। तुम्हें प्रामाणिक जड़ों से हिलाना होगा, तुम्हें भयभीत बनाना होगा।
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तुम्हें स्वयं अपने ही प्रति अनाश्वस्त होना होगा, ऐसा होना अनिवार्य है। केवल तभी नेता अथवा पथप्रदर्शक आ सकता है।यदि तुम बुद्धिमान हो, तो तुमअपनी समस्याएं स्वयं सुलझा लोगे। सभी समस्याओं को हल करने के लिए बुद्धिमत्ता पर्याप्त है। वास्तव में जो भी समस्याएं जीवन में सृजित होती हैं, तुम्हारे पास उन समस्याओं से कहीं अधिक बुद्धि होती है। यह एक प्रावधान है, यह परमात्मा का एक उपहार है।
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लेकिन वहां महत्वाकांक्षी लोग होते हैं। जो शासन करना चाहते हैं, जो आधिपत्य जमाना चाहते हैं: वहां महत्वाकांक्षी पागल लोग भी होते हैं—वे तुम्हारे अंदर भय सृजित करते हैं। भय एक मोरचे के समान है: वह सारी बुद्धिमत्ता को नष्ट कर देता है। यदि तुम किसी व्यक्ति की बुद्धिमत्ता को नष्ट करना चाहते हो, तो पहली आवश्यक चीज़ है कि भय सृजित करो, नर्क निर्मित कर दो जिससे लो डरने लगें।
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जब लोग भय के नर्क में होते हैं तो वे पुरोहित के पास जायेगें उसके आगे सिर झुकायेंगे। वे पंडित पुरोहित की बात सुनेंगे। यदि वे उसे नहीं सुनते है तो नर्क की ज्वाला है। स्वाभाविक रूप से वे भयभीत हैं। उन्हें नर्क की ज्वाला से अपनी रक्षा करनी है; इसके लिए पुरोहित की ज़रूरत है। पुरोहित अनिवार्य हो जाता है। क्योंकि तुम यह नहीं जानते कि क्या कल भी तुम्हारी बुद्धिमत्ता जीवन के साथ सफलतापूर्वक निपटने में समर्थ होगी अथवा नहीं। कौन जानता है ?
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तुम अपनी बुद्धिमत्ता के बारे में आश्वस्त नहीं हो, इसीलिए तुम संग्रह करते हो और लालची बन गए हो। और भय दोनों एक साथ समय बिताते हैं। इसी कारण स्वर्ग और नर्क दोनों एक साथ समय बिताते हैं। नर्क है भय और स्वर्ग है लालच।
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