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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू कहु दीदार की, सांई सेती बात ।*
*कब हरि दरशन देहुगे,*
*यहु औसर चलि जात ॥*
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*विरह-वेदना ॥*
मेरी जिव की जीवनि राम, कब घरि आवैगा ।
कब करिहौ दया दयाल, दीदार दिखावैगा ॥टेक॥
बारहमासी बिरहनी, निसदिन रहै उदास ।
दोऊ ठाहर जक नहीं, क्या घर क्या बनवास ॥
ऊँचे चढ़ि चढ़ि बिरहनी, जोवै पिव की बाट ।
अहनिस नींद न आवई, क्या धरती क्या खाट ॥
पलपल दूभर बिरहनी, कठिन दिवस क्यूँ जात ।
रैंणि छमासी ह्वै रही, मोहि तारा गिणत बिहात ॥
संदेसौ पहुँचे नहीं, कहै न कोई जाइ ।
बषनां बिरहनि बापुरी, फूलाँ ज्यूँ कुमिलाइ ॥२३॥
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जिव की जीवन = जीवन का सारतत्त्व । दीदार = दर्शन । बारहमासी = मैं ऐसी विरहनी नहीं हूँ जो कभी विरहनी नहीं रहती और कभी विरहनी परिस्थिति जन्य कारणों से बन जाती हैं । मैं तो बारहों मास = हमेशा ही आपके विरह में निमग्न रहने वाली विरहनी हूँ ।जक = शांति । जोवै = देखती है । बाट = रास्ता । खाट = चारपाई । दूभर = दुर्भर, कठिन । बापुरी = बेचारी ।
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मेरे जीवन का जीवनाधार, जीवन-सर्वस्व मेरे घर = हृदय में कब आयेगा । वह दयालु मेरे ऊपर कब दया करके मुझे दर्शन देगा ?
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मैं बारहमासी विरहनी उस जीवनाधार के विरह में रात-दिन उदास = दुःखी रहती हूँ । मुझे उस प्रियतम के बिना दोनों जगह = न घर में शांति मिलती है और न जंगल में एकाकी रहने पर मिलती है ।
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मैं विरहनी प्रियतम के आने की प्रतीक्षा ऊँचे से ऊँचे स्थान पर चढ़कर उसके आने के रास्ते को देखकर करती हूँ । मुझे रात अथवा दिन किसी भी समय नींद नहीं आती । चाहे मैं जमीन पर सोऊँ, चाहे चारपाई = पर्यंक पर सोऊँ ।
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मुझ बिरहनी को पल-पल व्यतीत करना कठिन है । कठिनता के साथ जैसे-तैसे करके दिन व्यतीत हो जाता है किन्तु एक रात्रि छः माहों की रात्रि के समान लगती है जो तारे गिनते-गिनते कठिनता के साथ व्यतीत होती है । (पुराने समय में समय की गणना आकाशस्थ तारों की स्थिति के अनुसार की जाती थी । अब रात्रि निःशेष होने में कितना समय है, कितनी रात्रि निःशेष हो चुकी है, तारे गिनने से तात्पर्य यही है) बषनांजी कहते हैं, विरहनी निपट निःसहाय है ।
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वह प्रियतम प्राप्त्यर्थ क्या करे क्योंकि उसके द्वारा भेजा गया संदेश प्रियतम तक पहुँचता नहीं है । कोई जाकर प्रियतम से उसकी विरहात्मक स्थिति को कहता नहीं है । ऐसी स्थिति में बेचारी विरहनी क्या करे ? वह फूलों की तरह कुम्हलाती रहती है । पल-पल क्षीण होती रहती है ॥२३॥
(क्रमशः)
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