रविवार, 1 दिसंबर 2024

*४४. रस कौ अंग ६१/६४*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४४. रस कौ अंग ६१/६४*
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वकुला मांही प्रेम रस, रस मंहि स्वाद सुरांम ।
कहि जगजीवन रांम मंहि, साध सुखी सब ठांम ॥६१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जैसे आम के छिलके में आम का रस रहता है जो आनंदप्रद है ऐसे ही राम में ही नहीं अपितु राम के नाम में भी आनंद है । सभी साधु जन वहां सुखी रहते हैं ।
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रस मंहि बकुला गालिये, सब रस जैसैं नीर ।
कहि जगजीवन रांम मंहि, निहचल रहै सरीर ॥६२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि आम के रस में छिलका रख दीजिए फिर उसका आस्वादन कीजिये उसमें से भी आम रस का स्वाद आयेगा ऐसे ही राम नाम व राम में सब देह एकरूप होते हैं ।
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बीरज थैं बकुला भया, बीरज बकुला मांहि ।
कहि जगजीवन रांम पिछांणै, तौ ए बिनसै नांहि ॥६३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि बीज रुप से आम बना और फलित होजाने पर उसमें पुनः बीज हुआ अगर जीव राम की निरन्तरता को जान ले कि वे तो शाश्वत हैं फिर देह विनाश का भय रहेगा ही नहीं ।
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हरि रस हाड़डियन रस्या५, अब रस मिलै न आंन ।
कहि जगजीवन रांम रस, रसिक पिवै धरि ध्यांन ॥६४॥
(५. हाड़डियन रस्यां=यह भगवत्प्रेम मेरी हड्डियों तक में समा गया है)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु का नाम रस तो हड्डियों तक में रमा है अब दूसरा रस कैसे मिले ! जो राम नाम के रसिया हैं वे ध्यान धर कर भगवत्प्रेम में डूबे रहते हैं ।
(क्रमशः)

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