मंगलवार, 3 दिसंबर 2024

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*दादू यह परिख सराफी ऊपली, भीतर की यहु नाहिं ।*
*अन्तर की जानैं नहीं, तातैं खोटा खाहिं ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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गुरु भी क्या करेगा शिष्य के लिए ! जब कोई शिष्य गुरु के चरणों में सिर रखकर पूछता है, तो क्या पूछता है ? और गुरु क्या बताएगा अंतत ? गुरु इतना ही बता सकता है कि जिसे तू खोज रहा है, वह तू ही है। जिसकी तलाश है, वह तुझ तलाश करने वाले में ही छिपा है। और जिसकी तरफ तू दौड़ रहा है, वह कहीं बाहर नहीं, दौड़ने वाले के भीतर है। और जो सुवास, जो कस्तूरी तुझे खींच रही है और आकर्षित कर रही है, वह तेरी ही नाभि में छिपी है और दबी है।
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लेकिन यह बात कृष्ण सीधी भी कह सकते थे, तब व्यर्थ होती। कृष्‍ण यह सीधा भी कह सकते थे कि अर्जुन मैं तुझमें हूं तब यह बात बहुत सार्थक न होती। यह इतनी यात्रा करनी जरूरी थी। अर्जुन बहुत—बहुत जगह थोड़ी—सी झलक पा ले, तो शायद अपने भीतर भी झलक पा सकता है।
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धर्मों ने जितनी विधियां खोजी हैं, वे सभी विधियां आवश्यक हैं, अनिवार्य नहीं। उनसे पहुंचा जाता है, लेकिन उनके बिना भी पहुंचा जा सकता है। उनसे पहुंचा जाता है, लेकिन उनके द्वारा ही पहुंचा जा सकता है, ऐसा नहीं है। सारी विधियां एक ही प्रयोजन से निर्मित हुई हैं कि किसी दिन आपको पता चल जाए कि जिसे आप खोज रहे हैं, वह आप ही हैं। बड़ी अजीब खोज है ! क्योंकि जब कोई खुद को खोजने लगे, तो खोज असंभव है। बिलकुल असंभव है। खुद को कैसे खोज सकिएगा ? और जहां भी खोजने जाइएगा, वहीं दूसरे पर नजर रहेगी।
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सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन अपने गधे पर बहुत तेजी से बाजार से निकला है। लोगों ने चिल्लाकर भी पूछा कि मुल्ला इतनी जल्दी कहां जा रहे हो ? नसरुद्दीन ने कहा, बीच में मत रोको। मेरा गधा खो गया है। पर वह इतनी तेजी में था अपने गधे पर कि गांव के लोग चिल्लाते भी रहे कि नसरुद्दीन, तुम अपने गधे पर सवार हो ! लेकिन वह उसे सुनाई नहीं पड़ा। सांझ जब वह थका—मांदा वापस लौटा। और दौड़ने की ताकत चली गई। और भागने की हिम्मत टूट गई। जब गधा भी थक गया और खड़ा हो गया, तब नसरुद्दीन को खयाल आया कि मैं भी कैसा पागल हूं ! मैं जिसे खोज रहा हूं उस पर सवार हूं।
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गांव लौटकर उसने बाजार के लोगों से कहा कि नासमझो, तुमने कहा क्यों नहीं ? मैं तो खैर जल्दी में था, इसलिए नीचे ध्यान न दे पाया। लेकिन तुम तो जल्दी में न थे ! गांव के लोगों ने कहा, हम तो चिल्लाए थे, लेकिन तुम इतनी जल्दी में थे कि तुम्हें अपना गधा दिखाई नहीं पड़ता था, तो हमारी आवाज क्या सुनाई पड़ सकती थी ! नसरुद्दीन पर हमें हंसी आ सकती है। लेकिन नसरुद्दीन का मजाक गहरा है।
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हम सब किसकी तलाश में हैं ? किसे हम खोज रहे हैं ? क्या हम पाना चाहते हैं ? हम अपने को ही खोज रहे हैं। हम खुद को ही पाना चाहते हैं। हमें यही पता नहीं कि मैं कौन हूं ? मैं क्या हूं ? क्यों हूं ? यही हमारी खोज है। लेकिन हम दौड़ रहे हैं तेजी से। और जिस पर सवार होकर हम दौड़ रहे हैं, उसी को हम खोज रहे हैं। जो दौड़ रहा है, उसी को हम खोज रहे हैं। जब तक यह दौड़ बंद न हो जाए, हम थक न जाएं, दौड़ समाप्त न हो जाए, तब तक हमें खयाल नहीं आएगा। हमें पता नहीं चलेगा।
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ये सारे साधन जो धर्मों ने ईजाद किए हैं, आपको थकाने के हैं। ये सारी प्रक्रियाएं जो धर्मों ने विकसित की हैं, ये आपको खूब दौड़ाकर इतना थका देने की हैं कि एक दिन आप खड़े हो जाएं थककर। जिस दिन आप खड़े हो जाएं, उसी दिन आपका अपने से मिलना हो जाए, अपने से पहचान हो जाए। ठहरते ही हम जान सकते हैं, कौन हैं। दौड़ते हम नहीं जान सकते कि कौन हैं।
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तेज है इतनी रफ्तार हमारी, और तेजी हमारी रोज बढ़ती जाती है। कभी हम पैदल चलते थे। फिर बैलगाड़ी पर चलते थे। फिर मोटरगाड़ी पर चलते थे। फिर हवाई जहाज पर चलते थे। अब हमारे पास अंतरिक्ष यान हैं। हमारी दौड़ की गति रोज बढ़ती जाती है। कभी आपने खयाल किया कि आदमी की गति जितनी बढ़ती जाती है, आदमी का आत्मज्ञान उतना ही कम होता जाता है !
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नहीं, खयाल नहीं किया होगा। इसमें कोई संबंध भी नहीं दिखाई पड़ा होगा। आदमी की जितनी स्पीड बढ़ती जाती है, गति बढ़ती जाती है, उससे उसका अपना संबंध छूटता जाता है। वह दूसरे तक पहुंचने में कुशल होता जाता है और खुद तक पहुंचने में अकुशल होता जाता है। किसी दिन यह हो सकता है कि हमारी रफ्तार इतनी हो जाए कि हम दूर के तारों तक पहुंचने लगें, लेकिन तब खुद तक पहुंचना बहुत मुश्किल हो जाएगा।
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नसरुद्दीन तो गधे पर सवार था, सांझ तक थक गया। हमारे अंतरिक्ष यान कब थकेंगे ? और अगर हमने सूरज की किरण की गति पा ली किसी दिन, तो शायद अनंत—अनंत काल लग जाए, उस गति में हमें आत्मज्ञान का पता ही न चल सके।
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इसलिए बहुत मजे की बात है, जितने गति वाले समाज होते हैं, उतने अधार्मिक हो जाते हैं। और जितने कम गति वाले समाज होते हैं, उतने धार्मिक होते हैं। जितने कम गति वाले समाज होते हैं, उतना भीतर पहुंचने की संभावना बनी रहती है। जितने गति वाले समाज हो जाते हैं, उतना बाहर जाने की संभावना तो बढ़ जाती है, खुद तक आने की संभावना घट जाती है।
आचार्य श्री रजनीश Osho
गीतादर्शनअ.10.प्र.14/126 परम गोपनीय—मौन

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