शनिवार, 14 दिसंबर 2024

*४४. रस कौ अंग ६५/६८*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४४. रस कौ अंग ६५/६८*
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हरि रस मांहि मिलाइ तन, रांम रसिक जन होइ ।
कहि जगजीवन निरंजन, निराकार भजि सोइ ॥६५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हरी स्मरण रुपी रस में ही देह का धर्म रखने वाले जन ही निरजंन निराकार प्रभु का भजन करते हैं ।
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कहि जगजीवन कोहतल१, मोर करै हरि सोर१ ।
अलह साहिब सो सुनैं, कहा करै कोई जोर२ ॥६६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि पर्वत की तलहटी में जिस प्रकार बैठ कर यदि मोर शोर करता है तो भी अर्श(ऊंचाई) पर बैठै प्रभु सुन लेते हैं प्रभु हमारी हर गतिविधि देखते सुनते हैं चाहे हम कितना ही गुप्त रखें ।
(१-१. कोह तल मोर करै हरि सोर=पर्वत की तलहटी में बैठ कर मयूर उच्च स्वर से ध्वनि करे । २. जोर=बल, सामर्थ्य)
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कहि जगजीवन अस्त३ गलि, तुचा४ गली रस मांहि ।
तब तन हरि हरि रांम हरि, दूजा भासै नांहि ॥६७॥
(३. अस्त गलि=हड्डियाँ गल गयीं) (४. तुचा गली=त्वचा गल गयी)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अस्थि व त्वचा तो रामानंद में गल गयीं अब देह में राम और राम में देह एकाकार है दूजा दिखता ही नहीं है ।
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रस बांधे रुचि ऊपजी, रांम किया रलियाति ।
कहि जगजीवन मूल की, जनम पिछांणै जाति ॥६८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम रस में अनुराग होने से राम जी ने उसमें ही लीन कर लिया । उस मूलरूप प्रभु को जानने से जन्म का उद्देश्य भी समझ आ जाता है ।
(क्रमशः)

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