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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*आंगण एक कलाल के, मतवाला रस मांहि ।*
*दादू देख्या नैन भर, ताके दुविधा नांहि ॥*
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*परिचय, आत्म-साक्षात्कार ॥*
सहजि मतिवालौ रे, पायौ राम रसाल ।
सहजि मतिवालौ रे, पीवै भरै कलाल ॥टेक॥
गोली भीगी ज्ञान की रे, कस लागौ नौ बात ।
गुरि मेरे भाता दिया, तब जाइ आई धात ॥
गगन मांहीं भाठी चिगै, धरणि लगाई धार ।
कनक कलस मैं रस चुवै, कोइ बिरला पीवनहार ॥
अति ताता छाती छिकै, ब्रह्म अगनि की आगि ।
थोड़ा सा मैं चाखिया, मेरै गया कलेजै लागि ॥
घर का काढ्या घर संधी, फूल चिग्या अैराक ।
जो पीवै सोई पड़ै, सहै न कोई छाक ॥
घरि मतिवाला घरि मद्द रे, घर ही मांहि कलालि ।
बारह पूनिम येकसी, याँ बषनां के मतिबाल ॥२६॥
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सहज = अनायास ही जो मतवाला कर देता है, ऐसा रामनाम-स्मरण रूपी रसाल = रसायन हमको प्राप्त हो गया है । सहज ही में प्राप्त, मतवाला बना देने वाले राम-रसायन को कलाल = साधक अन्तःकरण रूपी पात्र में भरता है और गुरूपदेश के रूप में पीता है ।
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रामनाम-स्मरण रूपी रसायन से ज्ञान-विवेक की आश्रयभूता गोली = बुद्धि भीगी = सिक्त हो गई और मन नौ बात = नवधा भक्ति के कसने = संपादन करने में लग गया । मेरे गुरुमहाराज ने मुझे भाता – भोजन = सदुपदेश दिया जिसके कारण ही धात = बहुमूल्य धातु रूपी ज्ञान भक्ति, वैराग्य से साध्य परब्रह्म-परमात्मा रूपी रसायन हस्तगत हुआ है ।
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इन बहुमूल्य साधनों के द्वारा गगन = सहस्त्रार में रसायन तैयार करने के लिये भट्टी चुनी जाती है जिसका एक धार = शिरा = छोर मूलाधारचक्र में तथा दूसरा सहस्त्रारचक्र में स्थापित होता है । इस भट्टी पर तैयार हुआ रसायन कनक कलस = सोने के कलश = हृदय में, मुख में स्त्रावित होता है । इस प्रकार तैयार रामरसायन को पीने वाले कोई विरले ही होते हैं ।
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इस ब्रह्म रसायन रूपी अग्नि की ताप अतीव ताता = गर्म = प्रभावकारी होता है जो छाती = हृदय को आप्लावित कर तृप्त कर देता है । बषनांजी कहते हैं, इस ब्रह्मरसायन के थोड़े से अंश को मैंने भी चाखा है और अब मेरा मन इस आसव को पीने का आदी हो गया है ।
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घर = शरीर में से घरसंधी = शरीर से सम्बन्ध रखने वाले काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्यादि समस्त दुर्गुण दुराचारों को निकाल फैंका और ज्ञान, भक्ति, वैराग्य, सद्गुण, सदाचार रूपी ऐराक के फूलों को स्थापित कर लिया । जो कोई इन ज्ञान, भक्ति, वैराग्य, सद्गुण, सदाचार रूपी ऐराक के फूलों से निर्मित रसायन = आसव को पीता है, वह इसके छाक = ताप को सहज ही में सहन नहीं कर पाता है और इसके मदमें मदमस्त हो जाता है । अर्थात् एकबार जब भगवद्भक्ति का रंग लग जाता है तब साधक को भगवान् के अतिरिक्त अन्य कुछ दिखता ही नहीं है । वह अहर्निश उसी के चिंतन-मनन में निमग्न हो जाता है । बषनांजी कहते हैं इस रामरसायन को ढूंढने के लिये अन्यत्र जाने की आवश्यकता नहीं है । क्योंकि स्वयं जीव ही मतवाला = पीने वाला है । इस शरीर में ही ज्ञान, भक्ति, वैराग्य के द्वारा प्राप्य रामरसायन रूपी आसव है और घर – शरीर में ही बनाने वाला = साधना करने वाला कलालि = साधक है ।
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बषनांजी कहते हैं, इस मतवाले = नशे को कर लेने पर बारहों पूनम = पूरा वर्ष = पूरा जीवन ही एक जैसा हो जाता है । फिर कभी उतार-चढ़ाव नहीं आता । ब्राह्मीस्थिति में = निर्गुण-निराकार की ज्ञाननिष्ठा में प्राप्त स्थिति सदैव एक जैसी रहती है कबकी भक्तिनिष्ठा में प्रेमस्थिति “प्रतिक्षणवर्धमानम्” प्रतिक्षण बढ़ने वाली होती है । ध्यान रहे, प्रेमनिष्ठा की प्रेमस्थिति प्रतिक्षण बढ़ती ही है, घटती नहीं है । अतः यह भी श्रेष्ठ स्थिति है ॥२६॥
(क्रमशः)
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