शनिवार, 14 दिसंबर 2024

नाथ संप्रदाय

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*सब संतन सौं बीनती, जे सुमिरें जगदीस ।*
*हरि गुरु हिरदै में बसो, और हमारे शीश ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*छप्पय-* 
*(१)चूणकर, (२)नेतीनाथ, (३)विप्र (४)हाली (५)हरताली ।*
*(६)बालनाथ (७)औघड़, (८)आई (९)नरवै को न्हाली ।*
*(१०)सुरतिनाथ (११)भरतरी, (१२)गोपीचंद (१३)आजू (१४)बाजू ।*
*(१५)कान्हिपाव (१६)अजैपाल, किया सब अपना काजू ॥*
*(१७)सिधगरीब (१८)देवल (१९)वैराग, (२०)चत्रनाथ (२१)पृथ्वीनाथ अब ।*
*(२२)शुक्लहंस (२३)रावल (२४)पगल, राघव के शिरताज सब ॥३०९॥* 
१. चूणकरजी नाथ सम्प्रदाय में प्रसिद्ध नाथ योगीराज माने जाते हैं ।
२. नेतीनाथजी ने ही हो सकता है नेती क्रिया आरम्भ की हो वा विशेष रूप से करते हों । इससे भी आपका नाम नेतीनाथ हो सकता है । आप भी सिद्ध पुरुष हुए हैं ।
३. विप्रनाथजी पहले ब्राह्मणवर्ण में होंगे अतः विप्रनाथ नाम से ही प्रसिद्ध हो गये । 
४. हालीपाव-हरियाणा प्रान्त के बोहर ग्राम के जंगल में आषाढ मास में किसान हल चला रहा था । लगभग दिन के ग्यारह बजे, उसके खेत के पास के मार्ग से गोरक्षनाथजी जा रहे थे । किसान हल छोड़कर मार्ग में आया और गोरक्षनाथजी को प्रणाम करके बोला- "आपने भिक्षा की है या नहीं । गोरक्षजी ने कहा- आगे ग्राम आयेगा उसमें कर लेंगे । 
उसने कहा- आगे ग्राम दूर है । आप यहाँ ही इस वृक्ष के नीचे विराजें । अभी मेरी स्त्री रोटी लेकर आने वाली ही है । आप भोजन करके विश्राम करना, फिर दिन के तीसरे पहर में इच्छा हो वहीं पधार जाना । गोरक्षजी ने कहा- तेरी स्त्री तेरे लिये लायेगी, मेरे लिये तो नहीं । 
वह बोला- आप जीम लेना मेरे लिये तो वह फिर ले आयेगी । आपके लिये तो नहीं भी लाये । कारण-हम सब तो स्वार्थ से बँधे हुये हैं ।" "गोरक्षजी, उसकी सरलता से प्रसन्न होकर ठहर गये । आज वह अपनी रोटी भी साथ ले आई थी अतः गोरक्षजी और किसान दोनों ने जीम लिया ।  
गोरक्षनाथजी जाने लगे तब किसान ने कहा- "भगवन् ! आप मुझे हित का उपदेश दे जाइये ।" गोरक्षजी बोले- "मन का कहना मत करना ।" वह सायं काल हल को कंधे पर रख कर घर जाने का संकल्प करने लगा तब स्मरण आया महाराज कह गये थे मन का कहना मत करना । 
घर जाने के लिये मन ही तो कहता है, नहीं जाऊँगा । हल कंधे से उतार दूँ । यह भी तो मन ही कहता है, नहीं उतारूँगा । ऐसे प्रत्येक संकल्प को रोकने से उसकी समाधि लग गई । १२ वर्ष के बाद गोरक्षनाथजी उधर से फिर निकले तो उनको स्मरण आ गया कि यहाँ तो मैने एक किसान को उपदेश दिया था । 
ध्यान धर के देखा तो ज्ञात हुआ, उसकी यहाँ ही समाधि लगी है । गोरक्षजी ने उसकी समाधि खोली । उसने गुरुजी के चरणों में प्रणाम किया । गोरक्षजीने कहा- तुम हालीपाव नाम से प्रसिद्ध होंगे । बोहर में हालीपावजी की समाधि है ।
५. हरतालीजी हरताल का विशेष प्रयोग करते होंगे इससे आपका नाम हरताली प्रसिद्ध हो गया होगा । आप नाथ संप्रदाय में माननीय योगीराज हो गये हैं ।
६. बालनाथजी बालपन से ही नाथ हो गये होंगे । आपने योगाभ्यास करके अपने उद्देश्य को
पूरा किया था । अतः आप पूजनीय योगीराज हो गये हैं ।
७. औघड़नाथ-पंथ के प्रमुख प्रवर्त्तकों व प्रचारकों में मोतीनाथ, दत्तात्रेय एवं कालूराम के नाम लिये जाते हैं ।
८. आईनाथ - आईनाथ-पंथ (८) की मुख्य प्रचारिका विमला देवी मानी जाती है । इसका केन्द्र दिनाजपुर जिले का गोरक्ष कुंई स्थान है । इस पंथ का सम्बन्ध घोड़ाबोली(घोड़ाचोली) से भी समझा जाता है ।
९. नरवैनाथ को भी देखो१, यह बड़े सिद्ध पुरुष हुये हैं ।
१०. सुरतिनाथजी तो अपनी वृत्ति को जीत कर एक मात्र विश्वनाथ में लगाये रहते थे ।
११. भर्तृनाथजी की कथा आगे आ रही है ।
१२. गोपीचन्द की कथा भी आगे आ रही है ।
१३. आजूनाथजी अच्छे नाथ संत हो गये हैं । आप सदा भजन द्वारा प्रभु के पास ही रहते थे ।
१४. बाजूनाथजी ने सम्पूर्ण विकारों को हटा दिया था एक मात्र प्रभु का ही ध्यान करते रहते थे । 
१५. कान्हिपावजी जालंधरनाथजी के शिष्य थे और विदर्भ देश के राजा के गुरु थे । आप भी बड़े सिद्ध पुरुष थे । आपके शिष्य भी बहुत थे । आजकल जो सपेले हैं वे इन्हीं का संप्रदाय है ।
गुरुजी ने इनको शाप दिया था कि तुमने मेरे सात वचन व्यर्थ किये हैं । अतः तेरे शिष्य सर्पों को खिलायेंगे । वे सात वचन कौन थे यह कथा, गोपीचन्द की कथा में आयेगी ।
१६. अजैपालजी ने भी अपने कल्याण के अर्थ परोपकारादि पारमार्थिक सभी कार्य किये थे । पहले आप साधारण क्षत्रिय थे । पुष्कर क्षेत्र के नाग पहाड़ में बकरियाँ चराया करते थे । पहाड़ पर पहुँचने पर एक बकरी आकर इनकी बकरियों में मिल जाती थी और पहाड़ से उतरते समय वह पहाड़ पर रह जाती थी । 
बहुत समय के बाद इनके मन में संकल्प हुआ कि यह किस की है देखें तो सही, ऐसे तो इतने दिन अकेली का पहाड़ पर रहना संभव नहीं है । अपनी बकरियों को छोड़ कर, उस बकरी के पीछे पीछे गये । वह एक गुफा में प्रविष्ट हुई । पहले द्वार पर तो कुछ दूर अँधेरा था किन्तु आगे प्रकाश आ गया । 
वहाँ एक संत विराजे थे । उनने पूछा- क्या बकरी की गवी लेने आये हो ? अजयपाल ने कहा- 'नहीं, केवल देखने आया था कि यह किसकी है । अब ज्ञात हो गया, यह संतों की है । आप संतों से क्या चराई ली जाय, आपकी तो जितनी भी सेवा की जाय उतनी ही अच्छी है ।' 
इसकी निष्कामता से प्रसन्न होकर संत ने इसको अदृष्ट चक्र चलने का वर तथा कल्याणकारी उपदेश भी दिया । आगे चलकर ये अदृष्ट चक्र के प्रभाव से राजा हो गये थे तो भी आप रस्सी बाँट कर उसकी आय से अपना निर्वाह करते थे । राज्य का पैसा काम में नहीं लाते थे । बड़े ही सिद्ध पुरुष और भक्त हुए हैं । इनकी समाधि अजयसर ग्राम के पास है । 
जहाँ अजयगंध महादेवजी का मन्दिर है वहाँ ही आपकी समाधि की छत्री है । भाद्रपद शुक्ला ६ को आपकी समाधि पर मेला भी लगता है । ग्रामीण लोग बिच्छू आदि से बचने के लिए आपकी समाधि पर नारियल चढ़ाते हैं । अजैयपाल अन्य नाथ भी हो सकते हैं किन्तु उनका अभी पता नहीं है ।
१७. सिद्धगरीबजी सिद्ध पुरुष होकर भी गरीब से रहते थे ।
१८. देवलनाथजी देवल में विराजते हुए सदा भजन में मस्त रहते थे ।
१९. वैराग्यनाथ-गोपीचन्दजी को ही कहते हैं । इनकी कथा मूल छप्पय ३१८ में आगे
आयेगी ।
२०. चत्रनाथजी परमार्थ विषय में अति चतुर संत योगी हुए हैं ।
२१. पृथ्वीनाथजी की कथा आगे आ रही है । आप बादशाह अकबर के समय में थे । इनकी कथा मूल इन्दव ३२१ में देखें ।
२२. शुक्लहंसजी पहले एक राजा के धोबी थे । इनका नियम था कि पहले एक वस्त्र संत का ही धोते थे और संत की चद्दर राजा के वस्त्रों के ऊपर रखकर लाते थे । चुगलखोरों ने राजा को चुगली (शिकायत) की कि शुक्लहंस आपके वस्त्रों पर भिक्षुओं की चद्दर रख कर लाता है । राजा ने शुक्लहंस को ऐसा करने से रोका किन्तु उसने नहीं छोड़ा । 
निन्दकों ने फिर निन्दा की । राजा ने शुक्लहंस के साथ दो सिपाही कर दिये और आज्ञा दी कि इसको हमारे वस्त्रों पर गेरू से रंगी हुई चद्दर मत रखने दो और न धोने ही दो । किन्तु सिपाहियों को वह वस्त्र धोते तथा रखते नहीं दीखता था और रखा हुआ नहीं दीखता था । अन्य सबको दीखता था । 
शुक्लहंस अपना काम पूर्ववत् ही करते थे । तब निन्दकों ने फिर निन्दा की कि सिपाही तो उससे मिल गये हैं, वह तो पूर्ववत ही आपके वस्त्रों पर भिक्षुओं की चद्दर रख के लाता है । राजा ने सिपाहियों को डाँटा । सिपाहियों ने कहा-हमें तो गेरू से रंगा हुआ वस्त्र न धोते, न रखते और आपके वस्त्रों पर रखा हुआ भी नहीं दीखता । 
राजा ने कहा-चौबीसों घन्टे ही इसके पहरा लगाओ । तो इसे किसी साधु के पास जाने दो और न साधु को इसके पास आने दो । वैसा ही किया किन्तु शुक्लहंस का नियम निभाने के लिए स्वयं भगवान् साधु भेष में अदृश्य रूप से चद्दर दे जाते थे । शुक्लहंस पूर्ववत ही करते थे । वह चद्दर अन्य सबको दीखती थी किन्तु सिपाहियों को नहीं दीखती थी । 
निन्दकों ने फिर निन्दा की । राजा ने सिपाहियों को फिर डांटा । सिपाहियों ने कहा- हम पूरा पहरा देते हैं, फिर भी चद्दर पूर्ववत् सबको दीखती है तो यह कोई अवश्य रहस्मय बात है । आप प्रेमपूर्वक शुक्लहंस से ही पूछें । राजा ने पूछा । शुक्लहंस ने कहा- मेरा नियम है संत की चद्दर धोकर अन्य वस्त्र धोता हूँ । 
उसको निभाने के लिये स्वयं संत आकर दे जाते हैं । वे संत, वस्त्र, वस्त्रों का धोना और आपके वस्त्रों पर रखना भगवत्कृपा से सिपाहियों को नहीं दीखता है । यह सुन कर राजा ने शुक्लहंसजी को मुक्त कर दिया । आपने भी सब कुछ छोड़कर भगवद्भजन में ही मन लगाया और महान् भक्त हुए । नाथ संतों के शिष्य होने से नाथों में गिने जाते हैं ।
२३. रावलनाथजी (१२) ये 'रावल' वा 'नागनाथ पंथ' के प्रवर्त्तक हैं । इसमें अधिकतर मुसलमान योगी हैं । इसका प्रधान केन्द्र रावलपिंडी है । इसके सिवाय दरियानाथ, कन्थड़नाथ आदि के नामों से भी कई शाखाएँ प्रचलित हैं ।
२४. पगलनाथजी (११) वें पगल-पंथ के प्रवर्त्तक चौरंगीनाथ (पूर्णभक्त) माने जाते हैं । इसका मुख्य केन्द्र बोहर स्थान है । यह दिल्ली से ३५ मील पश्चिम की ओर वर्तमान है ।
राघवदासजी कहते हैं कि ये सभी चौबीस नाथ तथा अन्य नाथ संत मेरे शिरोधार्य हैं ॥
(क्रमशः)

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