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*दादू अपणी अपणी हद में, सब कोई लेवे नाउँ ।*
*जे लागे बेहद सौं, तिन की मैं बलि जाउँ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ स्मरण का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*पीव पहचान का अंग १२*
कहै सब हद्द१ गहैं सब हद्द,
बेहद्द२ नहीं अनुमान में आवै ।
गुडी३ को उड़ान डोरी के प्रमाण हो,
चक्री हूं डोरी के वोर४ ह्वै आवै ॥
तीरको जान५ जहां लग पान६ जु,
गैंद को गौन७ पैंडे दश पावै ।
तरंग की चाल जहां लग पाल८ हो,
रज्जब डागुल९ दौर का धावै ॥२॥
पतंग३ का उड्डान डोरी के माप जितना ही होता है । चक्री भी डोरी के छोर४ के समान ही आगे आती है ।
बाण का जाना५ भी जहां तक उसमें बल६ होता है वहां तक ही होता है । गेंद का गमन७ भी दश पैंड तक हो पाता है ।
जल तरंग भी चाल भी बांध८ तक ही होती है । छत९ का दौड़ना भी छत तक का ही होता है । आगे क्या दौड़ेगा ?
वैसे ही सांसारिक प्राणी सीमा१ की ही बात कहते हैं । असीम२ प्रभु इनके अनुमान में नहीं आते ।
(क्रमशः)
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