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*जहँ मन राखै जीवतां, मरतां तिस घर जाइ ।*
*दादू वासा प्राण का, जहँ पहली रह्या समाइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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प्रश्न: भगवान, आत्मा शरीर धारण करने के लिए पूर्ण स्वतंत्र है, तो फिर अपंग, अंधे और लाचार बच्चों के पीड़ा से पूर्ण शरीर का चयन क्यों ? अच्छा और सुख से भरा शरीर धारण कर सकती है, क्योंकि यह उसकी स्वतंत्रता है। भगवान, आशीर्वचन का पान कराएं।
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गुणवंतराय पारिख, आत्मा निश्चय ही स्वतंत्र है, लेकिन तुम्हें अभी अपनी आत्मा का पता भी कहां ! तुम्हें आत्मा का बोध भी कहां, होश भी कहां ! आत्मा स्वतंत्र है, लेकिन आत्मा होनी भी तो चाहिए न। और जब पता ही नहीं है तो न होने के बराबर समझो।
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जार्ज गुरजिएफ कहा करता था, सभी के पास आत्मा नहीं है। और उसकी बात में एक सचाई है, चोट है। वह यह कह रहा है कि जिसको अपनी आत्मा का जागरूकता से बोध नहीं हुआ है, जिसको अपनी चेतना का साक्षात्कार नहीं हुआ है, उसके भीतर आत्मा के होने न होने का कोई मतलब ही नहीं है।
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तुम्हारी जेब में कोहिनूर हीरा पड़ा है, मगर तुम्हें पता ही नहीं है, तो क्या तुम समृद्ध हो गए ? तो क्या तुम धनी हो गए ? पड़ा रहे कोहिनूर हीरा। कोहिनूर हीरे की कहानी यही है। कोहिनूर हीरा मिला था एक किसान को गोलकोंडा के--एक गरीब किसान को। उसके खेत से एक छोटा सा झरना बहता था, जिस झरने में उसे एक दिन यह चमकता हुआ पत्थर मिल गया।
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उसने सोचा बच्चों के खेलने के काम आएगा। उठा लाया। तीन साल तक यह हीरा उसके आंगन में पड़ा रहा। बच्चे कभी खेलते, इधर फेंक देते, उधर फेंक देते। लेकिन किसान तो गरीब था सो गरीब ही रहा। कोहिनूर उसके आंगन में पड़ा था। और आज कोहिनूर संसार का सबसे बहुमूल्य हीरा है। तब भी था।
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सच तो यह है कि आज कोहिनूर केवल पुराने कोहिनूर का एक तिहाई हिस्सा बचा है। उस किसान के घर में यह तीन गुना बड़ा था। फिर इसको काटा गया है, इस पर पहलू रखे गए हैं, इसको निखारा गया है, साफ किया गया है। एक तिहाई वजन बचा है। तब भी दुनिया का सर्वाधिक बहुमूल्य हीरा है। तब तो तीन गुना था ! मगर वह किसान तो गरीब था सो गरीब ही रहा।
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वह तो संयोग की बात थी कि एक घुमक्कड़ साधु उसके घर रात मेहमान हो गया। और उस साधु ने यह हीरा देखा। वह साधु साधु होने के पहले जौहरी था। उसने कहा कि मैंने जीवन में बहुत हीरे देखे, मगर इससे बड़ा हीरा नहीं देखा। इसको आंगन में डाल रखा है, पागल है तू ? कोई चुरा ले जाएगा।
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उसने कहा, यह तो तीन साल से पड़ा है, कोई चुरा नहीं ले गया। गांव के गरीब किसानों को किसी को भी पता नहीं था कि यह हीरा है, चुरा कर कोई ले जाता किसलिए ? जब बोध हुआ कि हीरा है, उठा लाया जल्दी से। घबड़ाहट से बाहर गया कि कहीं कोई उठा न ले गया हो। रात थी। आधी रात को। फिर सुबह तक भी प्रतीक्षा नहीं की। रात भर सो भी न सका कि कहीं कोई चोर इत्यादि न आ जाए। तीन साल से पड़ा था, कोई चिंता न थी, कोई फिक्र न थी।
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सुबह ही उठ कर हैदराबाद के नवाब निजाम के यहां पहुंच गया। बहुत धन मिला उसे पुरस्कार में। हालांकि वह धन कुछ भी न था हीरे के मुकाबले। मगर किसान तो समझा कि बहुत मिला, अपूर्व मिला, इससे ज्यादा क्या मिल सकता है ! उसको क्या पता था कि हीरे की कितनी कीमत है।
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तुम्हारी आत्मा भी यूं है कि तुम्हें उसका पता नहीं। और जब पता ही नहीं तो गुरजिएफ ठीक कहता है कि है या नहीं, इससे क्या फर्क पड़ता है ? सिर्फ उन्हीं के पास है जिन्हें पता है। सिर्फ ध्यानी के पास आत्मा है, अगर ठीक से समझो। क्योंकि वही जौहरी है।
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गैर-ध्यानी के पास कोई आत्मा नहीं है ! गैर-ध्यानी तो खोका समझो। आत्मा आंगन में पड़ी है माना, मगर उसको न उसकी कोई कीमत है, न कोई मूल्य है। और जब तुम्हें पता ही नहीं तो तुम क्या खाक आत्मा की स्वतंत्रता का उपयोग करोगे !
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तुम पूछते हो, गुणवंतराय: "आत्मा शरीर धारण करने के लिए पूर्ण स्वतंत्र है...।' लेकिन तुम्हारी आत्मा नहीं, किसी प्रबुद्ध व्यक्ति की आत्मा। लेकिन तब एक मुश्किल खड़ी होती है। प्रबुद्ध व्यक्ति की आत्मा किसी भी शरीर में प्रवेश करने को स्वतंत्र है, लेकिन वह प्रवेश ही क्यों करे ? आखिर सभी शरीर छोटे-छोटे कारागृह हैं। तुम यह कह रहे हो कि आत्मा किसी भी कारागृह में प्रवेश करने के लिए स्वतंत्र है। मगर जब तुम स्वतंत्रता का बोध करोगे तो तुम किसी भी कारागृह में क्यों प्रवेश करोगे ?
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इसलिए जो जाग जाता है वह तो फिर किसी शरीर में प्रवेश नहीं करता। वह तो विश्व-आत्मा में प्रवेश कर जाता है। वह तो अपनी आत्मा को विराट के साथ लीन कर देता है। वह तो एक हो जाता है अनंत के साथ। जो शरीरों में प्रवेश करते हैं, उनको आत्मा का कोई पता नहीं, वे तो मूर्च्छित लोग हैं। और मूर्च्छित व्यक्ति क्या चुनेगा ? मूर्च्छित व्यक्ति अपनी मूर्च्छा के अनुसार ही चुनेगा न !
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