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*मन मनसा का भाव है, अन्त फलेगा सोइ ।*
*जब दादू बाणक बण्या,*
*तब आशय आसण होइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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तुम पूछ रहे हो, आत्मा शरीर धारण करने के लिए पूर्ण स्वतंत्र है, तो फिर : 'अपंग, अंधे और लाचार बच्चों के पीड़ा से पूर्ण शरीर का चयन क्यों ?'
मूर्च्छित व्यक्ति की धारणाएं हैं। अब समझ लो कि महात्मा गांधी, अब ये समझते हैं कि दरिद्र नारायण हैं। अगर ईमानदारी से यह मानते हैं कि दरिद्र नारायण हैं, तो मर कर ये दरिद्र में ही प्रवेश करेंगे, स्वभावतः। अमीर में प्रवेश करके क्या नारायण से दूर जाना है ? ये तो दरिद्र में ही प्रवेश करेंगे। इनकी धारणा इनको दरिद्र में ले जाएगी।
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अगर अछूत हरिजन हैं...हरिजन की पहले कुछ और व्याख्या थी। हरिजन की बड़ी प्यारी व्याख्या थी। नरसी मेहता ने हरिजन की ठीक-ठीक व्याख्या की है: हरिजन तो तेने कहिए जो पीर पराई जाने रे। कहां तो हरिजन की यह व्याख्या और कहां जगजीवनराम हरिजन ! चमार हो गए कि हरिजन हो गए ! भंगी हो गए कि हरिजन हो गए !
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महात्मा गांधी खुद भी अपने आश्रम में पाखाना साफ करते थे, औरों से भी करवाते थे। अब तुम पूछ रहे हो गुणवंतराय पारिख कि अपंग, अंधे और लाचार बच्चों के पीड़ा से पूर्ण शरीर का चयन क्यों ? अगर महात्मा गांधी को चुनना ही होगा कोई शरीर तो भंगी का चुनेंगे। पाखाना साफ करेंगे। सिर पर पाखाना ढोएंगे। तभी उनके चित्त को शांति मिलेगी, नहीं तो चित्त को शांति नहीं मिल सकती।
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धारणाएं तो दिक्कत देंगी न ! आखिर तुम्हारी धारणाओं के अनुसार ही तो तुम चुनाव करोगे ! जीवन भर तुम अंधे की तरह जीते हो, आंख खोलते ही नहीं। आंख खोलने से डरते हो कि कहीं आंख खोलने से वह न दिखाई पड ? जाए जो तुम्हारी मान्यता के विपरीत है। तुमने घंटाकर्ण की कहानी सुनी न, जो अपने कानों में घंटे अटकाए रखता था ! घंटे बजते रहते, ताकि कोई ऐसी बात सुनाई न पड़ जाए जो उसके सिद्धांत के खिलाफ जाती है।
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जापान में एक कहानी है। एक बौद्ध साध्वी अपने साथ माणिक की बनी हुई छोटी सी बुद्ध की प्रतिमा रखती थी। और मंदिरों में ठहरती, साध्वी थी, तो मंदिरों में बुद्धों की और भी बहुत प्रतिमाएं होती थीं। सब माना बुद्ध की प्रतिमाएं हैं, मगर अपनी प्रतिमा की बात ही और ! अहंकार कैसे-कैसे रूप लेता है! वह रोज पूजा करती अपनी माणिक की प्रतिमा की।
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पूजा में धूप जलाती, दीप जलाती। मगर उसको यह डर भी लगा रहता कि धूप तो उड़ेगी ! उड़ेगी, और दूसरे बुद्ध बैठे हैं न मालूम कितने ! बुद्ध मंदिरों में बहुत बुद्ध होते हैं। और दूसरे बुद्धों की नाक तक पहुंच गई तो अपने बुद्ध वंचित हुए। सो उसने एक पोंगरी बना रखी थी, सो बुद्ध के नाक से जोड़ देती थी।
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उसका कुल परिणाम इतना हुआ कि बुद्ध की नाक काली पड़ गई। खुद की नाक कटी, बुद्ध की भी कट गई ! नासमझों के हाथ में बुद्ध भी पड़ जाएं तो उनकी भी दुर्गति हो जाएगी। अब ये तुम्हारे जीवन के जो आधार हैं, अगर गलत हैं, तो तुम ऐसा ही चयन करोगे। स्वतंत्रता तो तुम्हें हो भी नहीं सकती। तुम्हारी धारणाएं, तुम्हारी मान्यताएं, तुम्हारे विश्वास तुम्हें अटकाएंगे। महंत गरीबदास झोलीवाले ने पूछा है...।
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अब देखते हो, इन्हें कोई और नाम न मिला--गरीबदास ! और उतने से भी चित्त नहीं भरा--झोलीवाले ! अब ये अगर मरें भी तो झोली तो साथ ले ही जाएंगे, पक्का समझना। ये झोली लटकाए ही पैदा होंगे। यह खोपड़ी देखते हो ! मगर ऐसी खोपड़ियां इस देश में बहुत हैं।
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अब उन्होंने पूछा है कि आप हम जैसे आचरणशील साधु-संतों की आलोचना में सदा संलग्न रहते हैं, जिससे सामान्य व्यक्ति में हमारे प्रति श्रद्धा खंडित होती है। और संतों में श्रद्धा ही जीवन का आधार है। और आप लोगों की श्रद्धा डगमगा कर उनके नरक का इंतजाम कर रहे हैं। क्या यह आपको शोभा देता है ? अब जरा सोचो, गरीबदास झोलीवाले स्वयं को सोचते हैं कि आप हम जैसे आचरणशील साधु-संतों की आलोचना में सदा संलग्न रहते हैं !
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कौन सा आचरण और कैसे साधु-संत ? और जो स्वयं को साधु-संत मानते हों, एक बात तो निश्चित है कि उन्हें साधुता का और संतत्व का कोई भी पता नहीं। गरीबदास, जरा उपनिषद पढ़ो। उपनिषद कहते हैं: जो सोचता है कि मैं जानता हूं, जानना कि नहीं जानता। उपनिषद यह भी कहते हैं कि अज्ञानी तो अंधकार में भटकते हैं, ज्ञानी महा अंधकार में भटक जाते हैं।
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अब क्या तुम यह कहोगे कि उपनिषद ज्ञानियों की आलोचना में लगे हुए हैं, लोगों की श्रद्धा ज्ञानियों में खंडित कर रहे हैं, और अज्ञानियों की प्रशंसा कर रहे हैं ? क्योंकि उपनिषद कहता है: अज्ञानी अंधकार में ही भटकते हैं, मगर ज्ञानी महा अंधकार में भटक जाते हैं। और जो कहता है मैं जानता हूं, वह निश्चित नहीं जानता। और जो कहता है कि मैं नहीं जानता हूं, वह जानता है। यह तो अज्ञान की प्रशंसा हो गई और ज्ञान की आलोचना हो गई।
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यहां भी उपनिषद घटित हो रहा है। और आलोचना साधु-संतों की नहीं हो रही। साधु-संतों के नाम से जो हजार तरह के ढोंग-धतूरे चल रहे हैं, उनकी आलोचना हो रही है। और उनकी आलोचना होनी चाहिए। गलत की तो आलोचना होनी चाहिए। और इतनी घबड़ाहट क्या है ?
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अगर मैं सत्य की आलोचना कर रहा हूं, तो इतने साधु-संत हैं, वे लोगों को समझाएं कि मैं सत्य की आलोचना कर रहा हूं और मेरी आलोचना गलत है। लेकिन मेरी आलोचना का एक भी उत्तर नहीं मिलता, सिर्फ गालियां देते हैं साधु-संत। उत्तर देने चाहिए। और मैं जब भी किसी चीज की आलोचना करता हूं तो अकारण नहीं करता। फिर मैं इसकी कोई चिंता नहीं करता कि वह शास्त्र में है, सिद्धांत में है। अगर गलत है तो गलत है।
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