सोमवार, 17 फ़रवरी 2025

साँच चाणक को अंग १४

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*कामधेनु घट घीव है, दिन दिन दुर्बल होइ ।*
*गौरू ज्ञान न ऊपजै, मथि नहिं खाया सोइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक को अंग १४
तेल को कूंपो न तेल सौं कोमल,
नीकी नरम्म ह्वै और अधौरी ।
गाय के दूध महाबलि बाछरो,
गाय गई अपने बल बौरी ॥
मणि सौं विष और मनुष्य को उतरे,
सर्प समीप सदा इक ठौरी ।
हो रज्जब सु:ख सदा श्रोता वक्ता के,
विनाश कदे नहिं त्यौरी ॥८॥
तेल का कुप्पा(ऊंट की चर्म से बना पात्र) तेल से कोमल नहीं होता किंतु दूसरी चर्म१ भली प्रकार कोमल हो जाती है ।
गाय के दूध से उसका बछड़ा महाबली हो जाता है किंतु गाय अपने बल को खो देती है अर्थात कमजोर हो जाती है ।
सर्प की मणि से अन्य मनुष्य का सर्प विष उतर जाता है किंतु सर्प के पास वह सदा रहती है और विष तथा मणि एक ही स्थान पर रहत है किंतु सर्प विष नष्ट नहीं होता ।
वैसे ही सज्जनों ! श्रोता को तो सुनने में सदा सुख होता है किंतु वक्ता की वह ज्ञान दृष्टि वक्ता के दु:ख को कभी नष्ट नहीं करती है ।
(क्रमशः)

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