शुक्रवार, 25 अप्रैल 2025

*४६. परमारथ कौ अंग १७/२०*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Rgopaldas Tapsvi, बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४६. परमारथ कौ अंग १७/२०*
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सौंज सकल ले राखिये, सुख का सागर मांहि ।
जगजीवन तौं जीविये, कोई दुख व्यापै नांहि ॥१७॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि सब साधन रखें जो सच्चे साधक को रखने चाहिए तभी अथाह सुख मिलता है संत कहते हैं इस प्रकार जीवन से कोइ दुख नहीं व्यापता है ।
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नर निरमल तेई गिनौ, जे लहैं पराई पीर३ ।
कहि जगजीवन रांमजी, धनि ते भांनै भीर४ ॥१८॥
(३. पीर=पीड़ा, दुःखमय अनुभूति)   {४.भीर=भीड़(विपत्ति,संकट)} 
संत जगजीवन जी कहते हैं कि वे ही मनुष्य निर्मल हैं जो पराई पीड़ा जानते हैं । तभी परमात्मा उनके हर कष्ट दूर करते हैं ।
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कहि जगजीवन रांमजी, पररमारथ हरि नांम ।
कहि जगजीवन विणजता५, सरि आवै सब काम ॥१९॥
(५. विणजतां=व्यापार करते हुए)
संत जगजीवन जी कहते हैं कि सबसे अच्छा व्यापार प्रभु का नाम है जिसके व्यापार से सब काम पूर्ण होते हैं ।
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धरम धजा परमारथी, धर्म नांव सत पारि ।
कहि जगजीवन बैठि तहां, निरमल नूर निहारि६ ॥२०॥ 
(६. निहारि=निरीक्षण कर)
संत जगजीवन जी कहते हैं कि धर्म की ध्वजा यानि धर्म में अग्रणी परमार्थी ही हैं । इससे ही सत्य पार पहुंच पाता है । और धर्म धारण कर सत्य का आलम्बन ले कर ही जीव जीव प्रभु के तेज के दर्शन कर पाते हैं ।
(क्रमशः)

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