शुक्रवार, 18 अप्रैल 2025

*साँच चाणक का अंग १४*

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*दादू जे जे चित बसै, सोई सोई आवै चीति ।*
*बाहर भीतर देखिये, जाही सेती प्रीति ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ मन का अंग)*
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*श्री रज्जबवाणी सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*साँच चाणक का अंग १४*
कहै कछु और गहै कछु ओर,
लहैगो सोई जा मे चित्त समायो१ ।
कहै मुख राम गहै कर चाम हो,
माली ने अंत में चरस२ हि पायो ॥
जर्यो सब ग्राम उठे गृह ठाम३ हो,
बात कहै कछु नाहिं सिरायो४ ।
पेट की पाहि५ जगावत गोरख,
रज्जब जोगी को टूक६ हि आयो ॥१४॥
कहता कुछ और है, ग्रहण कुछ और करता है किंतु प्राप्त तो उसी को करेगा जिसमे चित्त लगा१ है ।
माली कूप चलाते समय मुख से राम कहता है और हाथ मे चर्म की लाव पकड़ता है वा चर्म की पतली रस्सी जिसमे भौंण शनै: चलता है, पकड़ता है । मन में चड़स पकड़ने की बात रहती है, तब अंत में उसे चड़स ही मिलता है ।
सब ग्राम जल गया है, घर आदि स्थान३ उठ गये हैं, ऐसी बात कहने से कुछ भी नाश४ नहीं होता है ।
पेट की पूर्ति की इच्छा५ से गोरख जगाता है उस योगी के लिये टुकड़ा६ ही आता है ।
(क्रमशः)

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