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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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५ आचार्य जैतरामजी महाराज
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सिक्ख गुरु और जैतराम जी की गोष्ठी
इससे सिक्ख गुरु बहुत प्रभावित हुये थे और सब सिक्खों के सहित प्रेम से भोजन किया था । भोजन के पश्चात् विश्राम कर के फिर दोनों आचार्य एक साथ बैठे । इस समय सिक्ख गुरु गोविन्द सिंह जी ने प्रसंग चलाया कि हिन्दुओं पर विपत्ति आ रही है । इससे हिन्दू समाज को कैसे बचाया जाय ? हमने बहुत प्रयत्न किया है किन्तु सफलता नहीं मिल सकी है ।
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यह सुनकर जैतराम जी ने कहा - आपने हिन्दुओं को दु:ख में डालने वालों पर शस्त्र उठाये परन्तु शस्त्रशक्ति तो हमसे उनके पास अधिक है । शस्त्रों से तो सफलता तब ही मिलती है जब हमारी शक्ति विरोधी से दुगनी हो । अन्यथा सफलता में संशय ही रहता है । इस समय वे प्रबल हैं और हम में एकता नहीं है और एकता का प्रयत्न करने पर भी हो नहीं सकेगी । कारण - अभी उनके पुण्य शेष हैं ।
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अत: इस समय शस्त्रों से सफलता मिलना मेरे विचार से कठिन है । इस समय तो हम संतों के समभाव का आश्रय लेकर कि हम तो भाई भाई हैं, ऐसा कहकर अपने विनाश को रोकें । कहा भी है -
समता ही संसार में, विजय हेतु दिखलात ।
गोविन्दसिंह से जैत ने, यही कही थी बात ॥३१ ॥द्द.त. ७
युद्ध नहीं करें युद्ध करने से तो हम अपना ही विनाश करा लेंगे ।
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युद्ध से जो हुआ सो आप को अनुभूत ही है । अत: थोडा धैर्य रखने पर थोडे समय के पश्चात् ही विरोधियों का पतन आरंभ हो जायगा और उत्तरोत्तर ह्रास ही होता जायगा । अत: मेरे विचार से आप को अब युद्ध नहीं करना चाहिये । इतना कहकर जैतराम जी मौन हो गये ।
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सिक्ख गुरु गोविन्दसिंह जी भी फिर कुछ नहीं बोले । फिर सायंकाल की आरती का समय आ गया था । आचार्य जैतरामजी आरती में पधार गये । रात्रि में सिक्ख गुरु गोविन्दसिंह जी सिक्खों सहित दादू द्वारे में विराजे । फिर दूसरे दिन आचार्य जैतराम जी से मिल कर प्रस्थान करने लगे तब शिष्टाचार का आश्रय लेकर दोनों ने एक दूसरे को प्रणाम किया ।
प्रसन्न होय भोजन कियो, चलत नमायो शीश ।
गुरु दादू का पाट पर, जैत ज्योति जगदीश ॥
(क्रमशः)
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