मंगलवार, 2 सितंबर 2025

३. विरह कौ अंग २५/२८

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*३. विरह कौ अंग २५/२८*
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सुन्दर तलफै बिरहनी, बिलख तुम्हारे नेह । 
नैंन श्रवै घन नीर ज्यौं, सूकि गई सब देह ॥२५॥
हे सुन्दर प्रियतम ! मैं आपके स्नेह के वश में होकर विलाप करती हुई तड़प रही हूं । आप के विरह(वियोग) में मेरे नेत्रों से अश्रुधारा उसी प्रकार बह रही है जैसे मेघों से वर्षा हुआ करती है । इसी कारण मेरा समस्त शरीर क्रमशः सूखा जा रहा है ॥२५॥
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सब कोई रलियां करै, आयौ सरस बसंत । 
सुन्दर बिरहनि अनमनी, जाकै घर नहिं कंत ॥२६॥
वसन्त ऋतु के आने पर सभी गृहस्थ जन स्वभावानुकूल रंगरेली(क्रीडा, प्रमोद) मनाने में व्यस्त हो जाते हैं; परन्तु विरहिणी कहती है - मैं किसके साथ रंगरेली मनाऊँ, क्योंकि मेरे प्रियतम तो इस समय घर में ही नहीं है ! ॥२६॥
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घर घर मंगल होत है, बाजहिं ताल मृदंग । 
सुनि सुनि बिरहनि परजरै, सुन्दर नख सिख अंग ॥२७॥
इस ऋतु में सभी सुहागिनें अपने अपने प्रियतम के साथ, ताल, मृदङ्ग आदि वाद्यों के सहारे, अपने अपने घरों में मङ्गलगान कर रही हैं । उसे सुन सुन कर इस विरहिणी का हृदय जल रहा है । या यह कहिये कि नख से शिखा पर्यन्त उस का समस्त शरीर प्रज्वलित हो उठा है ॥२७॥
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अपने अपने कंत सौं, सब मिलि खेलहिं फाग । 
सुन्दर बिरहनि देखि करि, डसी बिरह कै नाग ॥२८॥ 
इस ऋतु में सभी सुहागिनें अपने अपने पति के साथ फाग(अबीर, गुलाल के साथ मङ्गल गीत) गा रही हैं । यह सब देख कर इस विरहनी के कलेजे पर सर्प लोट रहा है ॥२८॥
(क्रमशः)  

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