बुधवार, 1 अक्टूबर 2025

६. उपदेश चितावनी कौ अंग १/४

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*६. अथ उपदेश चितावनी कौ अंग १/४*
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सुन्दर मनुषा देह की, महिमा बरनहिं साध । 
जामैं पइये परम गुरु, अविगति देव अगाध ॥१॥
मनुष्य देह की प्रशंसा : सन्त जन इस मनुष्य शरीर की केवल इसलिये प्रशंसा करते हैं कि संसार में इस शरीर को प्राप्त कर के ही कोई साधक पुरुष किसी योग्य गुरु के उपदेश का आश्रय कर उस सूक्ष्म, अगम्य एवं गम्भीर परम तत्त्व का साक्षात्कार कर सकता है ॥१॥
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सुन्दर मनुषा देह की, महिमा कहिये काहि । 
जाकौ बंछै देवता, तूं क्यौं खोवै ताहि ॥२॥
अरे मूर्ख प्राणी ! इस मानव देह की किन शब्दों में प्रशंसा की जाय । इस की प्राप्ति के लिये तो बड़े बड़े देवता भी लालायित रहते हैं, तरसते हैं; और एक तूं है कि इसे पाकर भी हीन कर्मों में लिप्त रहता हुआ व्यर्थ खो रहा है ॥२॥
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सुन्दर मनुषा देह यह, पायौ रतन अमोल । 
कोडी साटै न खोइये, मांनि हमारौ बोल ॥३॥
अरे भोले प्राणी ! तेरा यह मानवदेह एक अमूल्य रत्न के समान तुझ को मिला है । इसको तँ कोडियों के मूल्य में(साटै = भाव में) ही बेच डालने की मूर्खता न कर । तूँ हमारी इस एक बात को मान ले ॥३॥
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सुन्दर सांची कहतु है, मति आनै कछु रोस । 
जौ तैं खोयो रतन यह, तौ तोही कौं दोस ॥४॥
मैं(सुन्दरदास) तुम्हारे सामने यह वास्तविक सत्य ही प्रकट कर रहा हूँ । इसे सुन कर तूँ मुझ पर क्रोध न कर; क्योंकि इस अमूल्य देह के खो देने से अन्त में तेरी ही हानि होगी । इसके लिये लोग अन्त में तुझे ही दोष देंगे ॥४॥
(क्रमशः) 

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