रविवार, 5 अक्टूबर 2025

*६. उपदेश चितावनी कौ अंग १७/२०*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*६. उपदेश चितावनी कौ अंग १७/२०*
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सुन्दर बंध्या देह सौं, कबहु न छूटा भाजि । 
और कियौ सनमंध अब, भई कोढ मैं खाजि ॥१७॥ 
इस देह के ममत्वाध्यास में बंधने के बाद, तूं कहीं भाग कर जाने के बाद भी, मुक्त हो सकेगा; क्योंकि इस देहाध्यास के कारण तूं अब नये नये कौटुम्बिक बंधनों में भी फंसता जा रहा है । यह तो तेरे साथ वैसा ही हुआ जैसे किसी कुष्ठरोगी के शरीर में कण्डू रोग(खुजली) का उपद्रव भी हो जाय ॥१७॥
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मात पिता बंधव सकल, सुत दारा सौं हेत । 
सुन्दर बंध्या मोहि करि, चेतै नहीं अचेत ॥१८॥
तूं इस देहाध्यास के कारण ही, माता, पिता, भाई, बन्धु, बान्धव, पुत्र, पत्नी आदि कुटुम्बी जनों से स्नेह करता हुआ उनके मोह में फंसता जा रहा है । अरे प्रमत्त ! इस प्रमाद के त्याग में तूं अब भी क्यों नहीं सावधान हो रहा है ! ॥१८॥
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सुन्दर स्वारथ सौं बंधै, बिन स्वारथ को नांहि । 
जब स्वारथ पूजै नहीं, आपु आपु कौ जांहिं ॥१९॥
तूं क्यों नहीं समझता कि ये सब अपने स्वार्थ के कारण तुझ से स्नेह कर रहे हैं । जब तक इन का स्वार्थ तुझ से पूर्ण हो रहा है तभी तक ये तुझ से अपने स्नेह का प्रदर्शन कर रहे हैं । जिस दिन इनको तुझ से स्वार्थपूर्ति की आशा नहीं रहेगी ये तुझ से कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहेंगे और अपना स्वतन्त्र मार्ग स्वीकार कर लेंगे ॥१९॥
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सुन्दर अति अज्ञान नर, समझत नांहि न मूरि । 
तूं इनसौं लाग्यौ मरै, ये सब भागै दूरि ॥२०॥
ये देहाध्यासी सांसारिक बन्धन में फँसे अज्ञानी नर इस मूल(यथार्थ या प्रधान) बात समझने को भी तय्यार नहीं हैं कि जिनसे हम स्नेहासक्त हो कर इनके लिये प्राणों की आहुति दे रहे है, एक दिन आयगा कि ये हमें एकाकी छोड़कर हम से दूर भाग जायेंगे ॥२०॥
(क्रमशः)

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