शनिवार, 31 मार्च 2012

= श्री गुरुदेव का अँग १ =(१/१-२)

॥ दादूराम सत्यराम ॥

शुभ सूचना ~ सद्गुरुदेव श्रीमद् दादूदयालजी महाराज की असीम, अहैतुकी अनुकम्पा से उनकी *श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)* का नित्य प्रकाशन फेसबुक पर आज श्री दादू प्राकट्य जयंती(चैत्रीय नवरात्र की अष्टमी) वि. सं. २०६८(ईस्वी 31/03/2012) से प्रारंभ कर रहे हैं | 

गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज की विशेष कृपा से, महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी रचित टीका वाली “वाणी जी” का यह विद्युत् संस्करण हमें प्राप्त हुआ | सभी संतों महापुरुषों को बारम्बार सत्यराम सहित सादर दण्डवत् ..... कृपा वृष्टि बनी रहे .....

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 

*अथ गुरुदेव का अंग - १*

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*मंगलाचरण*
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवत: । 
वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगत: ॥ १ ॥ 
परब्रह्म परापरं, सो मम देव निरंजनम् । 
निराकारं निर्मलं, तस्य दादू वन्दनम् ॥ २ ॥ 
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सत् चित् आनन्द एक तूं, ब्रह्म अजन्म असंग । 
विभु चेतन माया करें, जग को उत्पति भंग ॥ 
गणपति शारद शीश धर, करहु कृपा करुणेश । 
विघ्नहरण मंगलकरण, ब्रह्मा विष्णु महेश ॥ 
नारायणं निजानन्दं, श्री हरि परमेश्वरम् । 
निर्गुणं निर्लेपं भोक्तृं, दादूदेवं नमाम्यहम् ॥
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श्री कहिये माया शोभा, तिस कर के युक्त होवे, सो श्री राम कहिये और जिसके विषय योगीजन रमें अथवा सबके विषय आप रमा होवे, सो राम कहिए- 
"रमंते योगिनो यस्मिन् नित्यानन्दे चिदात्मनि । 
इति रामपदेनासौ परब्रह्माभिधीयते" इति राम: ॥
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सत्य कहिये - त्रिकालाबाध्यत्वं सत्यत्वं वा, सत्यं त्रिकाले सत्यं, स: सत्यराम: ॥ 
"Truth is God & God is Truth" - Bible
सांई मेरा सत्य है, निरंजन निराकार । 
नाम निरंजन निर्मला, दूजा घोर अंधार ॥ 
तीन काल में जिसका नाश नहीं होता, वह सत्य है । अत: ऐसे श्री रामजी, जो सत्य स्वरूप हैं, वे हमारी रक्षा करें । जो सर्व प्रकार के तन मन दोषों को दूर करके धर्म मोक्ष दायक ज्ञान, उपदेश का दान देने की कृपा करें ऐसा "दादू दयाल" शब्द का अर्थ जानना चाहिए - 
"दा" दाता है ज्ञान का "दू" से दुर्मत दूर । 
"दयाल" दया सब जीव पर, करै सदा भरपूर ॥ 
सच्चिदानन्द सन्दोह: स्वात्मरूप: परात्पर: ।
आविर्भूय परंब्रह्म दादूनामा बभौ भुवि ॥ 
अत: श्री स्वामी दादूदयाल जी हमारी रक्षा करें । श्री कहिये शोभा अथवा सम्प्रदाय के आचार्य और स्वामी कहिये अपनी महिमा करके युक्त और संप्रदाय के प्रवर्तक अथवा आचार्य होवें, सो स्वामी कहिए हैं और भक्ति ज्ञान-विज्ञान रूप दान को देवें, सो दादू कहिए और दया जिनके विद्यमान होवें, सो दयाल कहिए, वे हमारी रक्षा करें । "सर्वं वै सहस्त्रम्" इस वेदोक्ति के अनुसार "सर्व साधवा" का अर्थ तीन काल(भूत, वर्तमान, भविष्य) ।
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प्रश्न : सर्वप्रथम मंगलाचरण क्यों ?
उत्तर : सर्व विघ्न हरण के लिये । 
प्रश्न : वे विघ्न कौन से हैं ?
उत्तर : वे तीन प्रकार के विघ्न हैं -
(१)बौद्धिक - शब्द व अर्थ को अन्यथा ग्रहण करें;
(२)वाचिक - वाणी दोष से उच्चरित वर्ण, शब्द या विगलित कथन, कहै रोटी निकल जाए लोटी;
(३)कायिक - शारीरिक व इन्द्रीयजन्य व्याधि, विकार व विकलांगता । हरि-गुरु-सन्तों के स्मरण-मात्र से ये तीनों प्रकार के विघ्न नष्ट हो जाते हैं । 

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अत: ग्रन्थ-प्रणेता श्री स्वामी दादूदयाल जी निर्विघ्नता के लिए हरि-गुरु-सन्तों का स्मरणात्मक मंगलाचारण "दादू नमो नमो..." से प्रारम्भ करते हैं ।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवत: । 
वन्दनं सर्वसाधवा, प्रणामं पारंगत: ॥ 
परब्रह्म परापरं सो मम देव निरंजनम् ।
निराकारं निर्मलं, तस्य दादू वन्दनम् ॥ 

टीका :- निरंजन कहिए, माया आदि उपाधि रहित, ऐसा जो परमात्म देव ताको मेरा नमस्कार होवे और गुरुदेव जो ज्ञानमूर्ति हैं, उनको मेरा नमस्कार होवे । चार वर्ण(ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र), चार आश्रम(ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास) में जो संत हुए हैं और जो इस संसार-सागर से पारहोकर परब्रह्म स्वरूप में लीन हुए हैं, हो रहे हैं या होंगे, उन सभी साधुओं को वन्दना करता हूँ । इस प्रकार हरि गुरु - सन्तों को प्रणाम करने वाले इस भवसागर से अवश्य पार होंगे । अत: अपने इष्टदेव, जो परा-माया से परे और ऊपर अर्थात् मायावृत्त होते हुए मायावछिन्न("जल में गगन, गगन में जल है") अथवा माया से परम श्रेष्ठ, निरंजन निराकार, निर्मल(माया - मल रहित), परब्रह्म परमात्मा स्वरूप हैं, दादूदयाल महाराज कहते हैं - हम उनको मन – वच - कर्म से बारम्बार नमस्कार करते हैं ॥ १/२ ॥
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द्रष्टव्य : यहाँ मंगलाचरण में नमो, नमस्कार, वन्दना और प्रणाम शब्द श्री दादूदयालजी के सर्वधर्म समन्वय, निष्पक्षता व समत्वभाव के परिचायक हैं । नमो संन्यास आश्रम का, नमस्कार ब्राह्मण वर्ग का, वन्दना बौद्ध और जैन धर्म का तथा प्रणाम वैष्णव व वैरागी साधुओं के अभिवादन शब्द विशेष हैं । 
प्रश्न : मंगलाचरण में प्रमाण क्या है ? 
उत्तर : वेदों की श्रुति, गीता आदि स्मृति के अनुरूप श्रेष्ठ पुरुषों का मंगलमय आचरण ही मंगलाचरण (मंगल+आचरण) प्रमाण है । इसलिये ग्रन्थ-सम्पूर्णता की कामना वाले पुरुष को मंगलाचरण करना चाहिये । 
प्रश्न : हरि-गुरु-संतों का आपने नाम मात्र चिंतन किया, तो मंगलाचरण की क्या सिद्धि हुई ? 
उत्तर : मंगलाचरण दो प्रकार का है - 

(१)स्वरूपात्मक और 
(२)स्मरणात्मक । 
स्वरूपात्मक का अर्थ है- नमो आदि शब्दों से युक्त नमनीय के गुणों आदि का वर्णन किया जाता है, जैसे-तापत्रयविनाशाय नमो सहस्त्रमूर्तये । 
स्मरणात्मक का अर्थ है- चितवनमात्र, जैसे :- रामाय नम:, कृष्णाय नम: । यहाँ स्मरणात्मक मंगल से ही सर्व विघ्न दूर होकर उसका फलादेश भी "पारंगत:" शब्द से बतला दिया है ।
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प्रश्न : मंगलाचरण के कितने भेद बताए गए हैं ?
उत्तर : वाणीजी में मंगलाचार(मंगल+आचार, मंगला+चार) शब्द अनेक स्थानों पर प्रयुक्त हुआ है, जिसका सामान्य अर्थ मंगलाचरण करते हैं, किन्तु "मंगलाचार चहुँ दिशि भये" इसमें चारों दिशाओं में मंगलकामना की स्थिति के साथ मंगलाचरण के चार प्रकार होने की प्रतिध्वनि भी प्रतीत होती है, जैसे-
श्लोक :
नमस्कारं प्रशस्तिश्च आशीर्निर्देश भेदत: ।
चतुर्धा मंगलं प्रोक्तं, शास्त्रैर्विज्ञजनैर्बुधै: ॥ 

(१)नमस्कार - दादू नमो नमो, (२)प्रशस्ति - निरंजनम्, (३)आशीष् - गुरुदेवत:, (४)निर्देश - वंदनं सर्वसाधवा - पारंगत: । अथवा

(१)नमस्कार - "दादू वन्दनम्", (२)प्रशस्ति - समर्थ मेरा सांइयां, (३)आशीष् - "हरि नाम देहु", (४)निर्देश - "मना भजि रामनाम लीजे" ॥ 
जैन धर्म में भी "चत्तारि मंगलम्" कहे हैं - (१)अरिहंता मंगलं, (२)सिद्धा मंगल, (३)साहू मंगलं, (४)केवलिपण्णत्तो ।
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श्री दादूदयाल महाराज भी कहते हैं - "चँहुदिसि मंगलाचार, आनन्द बधाये ।" धम्मो मंगलम् । 
प्रथम मंगलाचरण की इस साखी(साक्षी) में ही - "नहिं अनुबन्ध पिछानै जो लौं ह्वै न प्रवृत्त सुघर नर तोलौं ।" ग्रन्थ के अनुबन्ध का भी निरूपण कर दिया है :- (१)"दादू नमो नमो" पद में अधिकारी, (२)"निरंजन" पद में विषय, (३)"नमस्कार गुरुदेवत:", "वन्दनं सर्वसाधवा" इन उभय पदों में सम्बन्ध और (४)"प्रणामं पारंगत:" पद में प्रयोजन यहाँ भी है (१)इष्ट समुच्चय, (२)ग्रंथ समुच्चय और (३)सर्व समुच्चय । श्री परमात्मने नम:, श्री निरंजनाय नम:, इत्यादि शब्दों का तात्पर्य केवल निरंजन शब्द में ही दिखाते हैं, क्योंकि निरंजन का ही हमारे इष्ट है, इसलिए यह इष्ट समुच्चय जानिए । यह ग्रंथ निरंजन का ही प्रतिपादक है, ताथैं ग्रंथ समुच्चय जानिए और "निरंजन" इस नाम का सभी स्मरण करते हैं और मानते हैं, इसलिए यह सर्वसमुच्चय भी जानिए, यह सिद्ध हुआ ।
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श्री स्वामी दादूदयाल जी की यह वाणी अनुभवकृत ग्रन्थ होने के साथ-साथ सर्वशास्त्रों का सारगर्भित सरल भाषान्तरण भी है- 
वाणी दादूदयाल की, सब शास्त्रन को सार । 
पढ़ैं विचारैं प्रीति सौं, सो जन उतरैं पार ॥ 
दादू दीनदयाल की, वाणी अनुभव सार । 
जो जन या हिरदै धरैं, सो जन उतरैं पार ॥ 
अत: इस वाणी-ग्रन्थ में शास्त्र-सम्मत विधान का पूर्णतया पालन हुआ है
श्लोक :
आशीर्वाद नमस्कारं वस्तुनिर्देशभेदत: । 
मंगलं त्रिविधं प्रोक्तं शास्त्रा दीनां मुखादिषु ॥
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शास्त्र विधानानुसार शास्त्र के आदि में मध्य में, अन्त में, मंगल तीन प्रकार का होता है- (१)आदि में-"दादू नमो नमो" (२)मध्य में - "जै जै तुम आदेश" और (३)अन्त में- "आरती करैं नमो निरंजन देव" "जुग जुग दादू गाइये ।" इसी प्रकार (१)नमस्कारात्मक, (२)आशीर्वादात्मक और (३)वस्तु निर्देशात्मक ।
*आशीर्वादात्मक* कहिए, जैसे - "जै जै जै जगदीश तूं" 
*नमस्कार मंगल* जैसे - "नमो नमो हरि नमो नमो",
*वस्तुनिर्देश* कहिए - आत्मा का निर्णय, जैसे - "निर्मल तत्त निर्मल तत्त निर्मल तत्त ऐसा ।"
एक निरंजन शब्द में ही तीनों मंगलाचरण का वर्णन चरितार्थ होता है, अर्थात् निरंजन से ही हम आशीर्वाद लेते हैं, क्योंकि उससे नाम का दान प्राप्त हुआ है, और निरंजन को ही हम नमस्कार करते हैं एवं निरंजन का ही निर्देश करते हैं अर्थात् निरंजन का ही निर्णय करते हैं । इसलिए निरंजन ही के विषय तीनों मंगलाचरण की सिद्धि होती है । 
शंका(पूर्व पक्षी): आप निरंजन को नमस्कार करते हो, उसमें तो मन, वाणी की पहुँच नहीं है, क्योंकि निरंजन तो सर्व माया-प्रपंच से रहित है और मन-वाणी तो माया के कार्य प्रपंच को ग्रहण करती हैं, उसको कैसे विषय करेगी अर्थात् जानेगी ?
वेदमन्त्र :- "यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह ।"
यह मंत्र भी ऐसे कहता है कि शब्द की प्रवृत्ति चार प्रकार की होती है - गुण, क्रिया, जाति, संबन्ध । गुण कहिए - श्वेत रंग, पीला रंग वाला । क्रिया कहिए - पाक आदि अर्थात् पकाई हुई चीज । जाति कहिए - गौत्र, ब्राह्मण आदि । सम्बन्ध कहिए - बोध्य बोधक आदि, और भी अनेक सम्बन्ध हैं - पिता-पुत्र, गुरु-शिष्य आदि । तातैं निरंजन स्वरूप में तो यह कोई भी प्रवेश नहीं कर सकते ? उसमें आपका नमस्कार कैसे पहुँचेगा ? उत्तर : सुनो भाई ! ब्रह्म का स्वरूप शास्त्रों में दो प्रकार का निरूपण किया है । प्रथम - विधिमुख करके, द्वितीय- निषेध मुख करके । यहाँ विधि मुख से वेद मंत्र बतलाता है :- "सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ।" ब्रह्म सत्य है, ब्रह्म ज्ञान स्वरूप है, ब्रह्म अनन्त है । दूसरा निषेध मुख करके वेदमंत्र बतलाता है :-
श्लोक :
"न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधक: । 
मुमुक्षुर्न वैरमुक्ता इत्येषा: परमार्थित: ॥"
अब एक दम निषेध मुख करके तो कहा नहीं जाता ! इसलिए कहते हैं :-
"अध्यारोपापवादाभ्यां निष्प्रपंच प्रपंचत: । 
कृत्कार्योपाधिर्जवोऽयं कारणोपाधिरीश्वर: ॥"
कार्यकारणतां गृहीत्वा पूर्णबोधोऽवशिष्यते । 
"निष्प्रपंच" कहिए, प्रपंचरहित परमात्मा के बीच में प्रपंच का अरोप करके, फिर निषेध करके कहते हैं कि कारण अविद्या, कार्य अन्त:करण, इनका त्याग करके पूर्ण बोधरूप आत्मा ही अवशेष रहता है । आत्मा सापेक्षवादी निरंजन शब्द में शंका करता है कि आपका निरंजन तो मिथ्या होता है, क्योंकि निरंजन कहिए आकार रहित, सो तो मिथ्या होता है । कैसे ? 
आकाश पुष्पवत्, बांझपुत्रवत् शसाश्रुंगवत् । 
यद्यपि यह ठीक है तथापि मिथ्या तो मिथ्या को कभी भी प्रकाशित नहीं करता है, उससे दूसरा कोई और प्रकाशक है । वह जो मिथ्या शब्द का प्रकाशक है, वही स्वरूप निरंजन का है, जिसमें मिथ्या का भी अध्यारोप होता है । ऐसे वेद कहता है :-
सत्यस्य सत्यं प्राणा वै सत्यं, तेषां स: सत्यं त्रिकाल सत्यम् । 
सत्य कहिए प्राणादिकों का भी सत्य है, जिसका तीन काल में भी नाश नहीं होता । 
सांई मेरा सत्य है, निरंजन निराकार । 
मन्त्रं सत्यं पूजा सत्यं, सत्यं देव-निरंजनम् । 
गुरुर्वाक्य सदा सत्यं, सत्यं एकं परं पदम् ॥
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प्रश्न : तो आप का भ्रम सिद्ध निरंजन होगा कैसे ? मरीचिका बारिवत्(मृग-तृष्णा का जल) शुक्ति रजतवत्(सीपी में रजत), रज्जु भुंजगवत्(रस्सी में सांप) इति शंका ? 
उत्तर : कहते हैं कि भ्रम का स्वरूप तो भ्रांति-काल में प्रतीत होता है और भ्रांति के नाश के पश्चात् उत्तरकाल में प्रतीत नहीं होता और यहाँ तो निरंजन के लिए गीता भी कहती हैं :-
श्लोक :
कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयां समनुस्मरेद्य: । 
सर्वस्य घातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमस: परस्तात् ॥ 
निष्कलं निष्क्रियं शान्तं निरवद्यं निरंजनम् । 
नित्यं सर्वगतं सूक्ष्ममादिदेवमजं विभुम् ॥ 
उस परम पुरुष के ये विशेषण हैं । वह परम पुरुष कैसा है ? वह परमपुरुष सर्वज्ञ, अनादिसिद्ध, नियन्ता अर्थात् प्रेरक, सूक्ष्म से अति सूक्ष्म, सबका पालन करने वाला, अचिंत्य, शक्तिवान् होने से एवं अप्रमाण महिमा और गुण प्रभाव होने से अचिन्त्यरूप, आदित्यवत्, स्वप्रकाशरूप अर्थात् ज्ञान स्वरूप, केवल शुद्ध ज्ञान, चैतन्य मात्र अनुभव करना चाहिए । अज्ञान से परे पूर्वोक्त पुरुष का अर्थात् शुद्ध ब्रह्म का जिज्ञासु स्मरण करता है । वह उसी दिव्य परमपुरूष को प्राप्त होता है, इसलिए निरंजन भ्रम रूप नहीं हैं ।
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शंका :- आपका निरंजन आश्रय आश्रितवान् होगा ? जैसे :- यंत्र रागवत् वस्तु रूप भी है और आकार रहित भी है, तो भी जैसे आश्रय बिना प्रकटता होती नहीं, वैसे ही आपका निरंजन होगा ? 
समाधान :- किन्तु आश्रय आश्रितभाव तो परिछिन्न वस्तु अर्थात् नश्वर वस्तु होती है और परमात्मा को तो अनन्त करके कहते हैं अर्थात् देश काल वस्तु प्रच्छेद रहित है । ऐसे परमात्मा को वेद कहता है - "सर्वाधार निराधारं ।" इति 
दादू निराधार निज देखिये, नैनहूँ लागा बन्द । 
तहां मन खेलै पीव सौं, दादू सदा आनंद ॥
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शंका :- तो हमने जाना कि आपका निरंजन अतज प्रमाण का विषय है, जैसे :- वट प्रेतवत्(बड़ में भूत) ।
समाधान :- अतज प्रमाण तो कथन श्रवण मात्र का ही विषय करता है । वस्तु के स्वरूप को विषय नहीं करता है, और यहाँ तो वस्तु विद्यमान(प्रकट) है, जो ज्ञानी को अनुभव होता है । 
वेदवाक्य :- "आत्मा वा रे दृष्टव्य: श्रोतव्य: मन्तव्यो निदिध्यासितव्य: ।" इति
दादू अविनासी अंग तेज का, ऐसा तत्त अनूप । 
सो हम देख्या नैन भर, सुन्दर सहज स्वरूप ॥ 
इस वास्ते अतज प्रमाण का विषय नहीं है । पूर्व पक्षी ने जो "विकल्प" कहिए प्रश्न किए, उसका समाधान करके अब जो निरंजन का स्वरूप है, सौ कहते हैं :-
परम तेज परापरं, परम ज्योति परमेश्वरम् । 
स्वयं ब्रह्म सदयी सदा, दादू अविचल स्थिरम् ॥ 
अनेक शब्द जिनका प्रतिपादन अर्थात् वर्णन करते हैं, ऐसे निरंजन को हमारी नमस्कार होवे ।
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प्रश्न : उस निरंजन की प्राप्ति किस प्रकार से होती है ? 
उत्तर : निरंजन की प्राप्ति का हेतु गुरु उपदेश है । किन्तु जैसे समुद्र के पार जाने के साधनों में जहाज ही एक सुन्दर साधन है, वैसे ही परमात्मा को जानने के साधनों में श्रेष्ठ साधन गुरु-ज्ञान ही है । इस वास्ते गुरु को नमस्कार करते हुए प्रथम "गुरुदेव का अंग" से श्रीवाणी जी ग्रन्थ का प्रारम्भ करते हैं, क्योंकि गुरु परमात्मस्वरूप है- 
"गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वर: । 
गुरु: साक्षात्परंब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नम: ॥"
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शंका :- गुरु के लक्षण कैसे हैं ?
समाधान :-
*गुरु लक्षण -*
गुकार: प्रथमो वर्णो मायादि गुणभासक: । 
रुकारोऽद्वितीयं ब्रह्म माया भ्रान्ति विमोचक: । 
गुकारस्त्वन्धकार: स्यात् रुकारस्तन्निरोधक: । 
अन्धकार विरोधित्वाद्, गुरुरित्यभिधीयते ॥ 
(गु=अन्धकार, रु= विनाशक, गुरु= अज्ञानान्धकार को मिटाने वाला)
अखंड-मंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरं । 
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नम: ॥ 
दादू गुरु गरवा मिला, ताथैं सब गम होई । 
लोहा पारस परसतां, सहज समाना सोइ ॥ 
दीन गरीबी गहि रहा, गरवा गुरु गंभीर । 
सूक्ष्म शीतल सुरति मति, सहज दया गुरु धीर ॥ 
सोधी दाता पलक में, तिरे तिरावन जोग । 
दादू ऐसा परम गुरु, पाया किंहि संजोग ॥ 
सतगुरु ऐसा कीजिए, राम रस माता । 
पार उतारे पलक में, दर्शन का दाता ॥ 
ऐसे सतगुरु जिनका अहंकार एवं मोह दूर हो गया है और शास्त्र क्षोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ अनेक लक्षणयुक्त जो गुरुदेव हैं, ऐसे गुरुदेव को मेरा नमस्कार है । तत्पश्चात् सब संतों को हमारी वन्दना है ।
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शंका :- वे सन्त कैसे हैं ?
समाधान :-
*संत लक्षण -*
निर्मानमोहा जितसंगदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामा: । 
द्वन्द्वैर्विमुक्ता: सुखदु:खसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढा: पदमव्ययं तत् ॥ 
दूर हो गये हैं मोह और मान जिनके, जीत लिया है संग का दोष जिन्होंने, वेदान्त के श्रवण मनन विचार में सदैव लगे रहते हैं और समस्त कामनायें इस लोक परलोक की नष्ट हो चुकी हैं चित्त से जिनकी सुख दु:ख आदि द्वन्द्वों से छूटे हुए आत्मतत्व के जानने वाले ज्ञानी संत उस निर्विकार पद को प्राप्त होते हैं । 
श्लोक :
अक्रोध-वैराग्य-जितेन्द्रियत्वं, क्षमा-दया-सर्वजनप्रियत्वम् । 
निर्लोभदातां भयशोकहीना, ज्ञाना प्रलब्धा दशलक्षणानि ॥ 
"घट की भान अनीत सब, मन की मेट उपाध । 
दादू परहर पंच की, राम कहैं ते साध ॥"
सोई साधु शिरोमणी, गोविन्द गुण गावै । 
राम भजै विषया तजै, आपा न जनावै ॥ 
मिथ्या मुख बोलै नहीं, पर-निन्दा नाहीं । 
औगण छाडै गुण गहै, मन हरि पद माहीं ॥ 
निर्बैरी सब जीव सौं, पर आतम जानै । 
सुखदायी समता गहै, आपा नहीं आनै ॥"
"अति कृपालु द्रोह नहिं जानै, क्षमावंत अरु सत्य बखानै ॥"
अनेक दैवी-सम्पत्ति के लक्षणों से पूर्ण हैं, उन संतों को हमारी वन्दना है ।
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शंका :- ऐसे हरि गुरु सन्तों को नमस्कार किया, इसका क्या प्रयोजन है ?
समाधान :- सो कहते हैं कि सर्व विघ्नों की निवृत्ति होने से निर्विघ्न ग्रन्थ की सम्पूर्णता होती है ।
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शंका :- ईश्वर सर्वज्ञ है एवं जीव अल्पज्ञ है, तो फिर आप ईश्वर से अभेद(एकरूप) करके गुरु को कैसे कहते हो?
समाधान :- यद्यपि जीव और ईश्वर का व्यवहारिक भेद तो है, परन्तु पारमार्थिक दृष्टि से भेद नहीं है, अर्थात् एक हैं । इसलिए जिस गुरु ने अपना लक्ष्य रूप जान लिया है । वे और ब्रह्म एक ही हैं, अलग नहीं है । 
वेद वचन :- "ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति"
श्लोक
यस्य देवे पराभक्ति:, यथा देवे तथा गुरौ । 
तस्यैते कथिता ह्यर्था: प्रकाश्यन्ते महात्मन: ॥ 
इस लिए ब्रह्मवेत्ता के विषय में शंका नहीं बनती ।
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प्रश्न : जो ग्रंथ होते हैं सो चार अनुबन्ध युक्त होते हैं और जिस ग्रंथ में अनुबन्ध नहीं होते, सो उन्मत्त प्रलाप अर्थात् पागल का बकना कहा जाता है, इसलिए यहाँ अनुबन्ध का उल्लेख तो दिखाई नहीं पड़ता । 
उत्तर : किन्तु यहाँ भी अनुबन्ध है ।
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प्रश्न : सो कैसे हैं ? 
उत्तर : विषय, अधिकारी, सम्बन्ध और प्रयोजन, इन चार को अनुबन्ध कहते हैं । विषय कहिये जीव ईश्वर की एकता, सो वेद के वचन हैं । 
जीव ब्रह्म सेवा करै, ब्रह्म बराबर होई । 
दादू जाने ब्रह्म को, ब्रह्म सरीखा सोई ॥ 
जीव ब्रह्म की एकता, कहत विषय जन बुद्धि । 
तिनको जो अन्तर लहैं, ले मति-मन्द अबुद्धि ॥ 
यह विषय है जिसको यह ग्रन्थ विषय करै(बतावै) सो ब्रह्म तो प्रतिपाद्य है और ग्रन्थ प्रतिपादक है । सोई प्रतिपाद्य प्रतिपादक भाव सम्बन्ध है । 
अनुभव वाणी अगम को, ले गई संग लगाइ । 
अकह कहै अगह गहै, अभेद भेद लहाइ ॥ 
प्रतिपादक प्रतिपाद्यता, ग्रन्थ ब्रह्म सम्बन्ध । 
प्राप्य प्रापकता कहत, फल अधिकृत को फन्द ॥
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*अधिकारी का लक्षण -*
साईं सौं सांचा रहै, सतगुरु सौं सूरा । 
साधौं सौं सम्मुख रहै, सो दादू पूरा ॥ 
प्रथम विवेक वैराग्य पुनि, समाधि षट संपत्ति । 
कहे चतुर्थ मुमुक्षता, ये चव साधन चित्ति ॥ 
हंस गियानी सो भला, अंतर राखै एक । 
विष में अमृत काढ़ ले, दादू बड़ा विवेक ॥ 
अविनाशी आतम अचल, जग तातैं प्रतिकूल । 
अैसो ग्यान विवेक है, सब साधन को मूल ॥
*वैराग्य लक्षण -
सूक्ष्म गुण घट माहिंले, तिन का कीजे त्याग । 
सब तज राता राम सौं, दादू यहु वैराग्य ॥ 
ब्रह्म लोक लौं भोग जो, चहै सबन को त्याग । 
वेद अर्थ ज्ञाता मुनि, कहत ताहि वैराग ॥
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*षट् संपत्ति -*
सम, दम श्रद्धा तीसरी, समाधान, उपराम । 
छठी तितिक्षा जानिये, भिन्न-भिन्न ये नाम ॥
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*समाधान -*
सम कहिए बाहर के विषयों का त्याग और दम अन्तर विषय वासनाओं का त्याग । 
जब अन्तर उरझा एक सौं, तब थाके सकल उपाय । 
दादू निश्चल थिर भया, तब चल कहीं न जाय ॥ 
मन विषयन तें रोकनो, सम तिहिं कहत सुधीर । 
इन्द्रियगन को रोकनो, दम भाखत बुधि वीर ॥ 
दम कहिए बाहर विषयों से इन्द्रियों को रोकना - 
कच्छिब अपने कर लिए, मन इन्द्रिय निज ठौर । 
नाम निरंजन लागि रहु, प्राणी परिहर और ॥
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*उपरति कहिए सब कर्मों से उपराम -*
दादू सब बातन की एक है, दुनियाँ सौं दिल दूर । 
साईं सेती संग कर, सहज सुरति लय पूर ॥ 
साधन सहित कर्म सब त्यागै, लखि विष सम विषयन तैं भागै । 
दृग नारी लख ह्वै जी ग्लाना, यह लक्षण उपराम बखाना ॥ 
तितिक्षा कहिए शीत उष्णादि का सहन करना - 
माहिं थैं मन काढ कर, ले राखै निज ठौर । 
नाम निरंजन लाग रहु, दादू परिहर और ॥
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*श्रद्धा कहिए गुरु शास्त्र में विश्वास -*
सतगुरु कहै सो कीजिए, जे तूं शिष सुजान । 
जहाँ लाया तहाँ लागि रहु, बूझै कहा अजान ॥ 
वेद वाक्य गुरु वाक्य सत्य, श्रद्धा अस विश्वास । 
समाधान ताको कहत, मन विक्षेप को नास ॥ 
समाधान कहिए चित्त की एकाग्रता श्रवणादि में -
प्रेम पियाला राम रस, हम को भावै येहि । 
रिधि सिधि मांगै मुक्ति फल, चाहैं तिन को देहि ।
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*मुमुक्ष कहिए मोक्ष की कामना वाला -*
तुम हरि हिरदय हेत सौं, प्रगटहु परमानन्द । 
दादू देखैं नैन भर, तब केता होई आनन्द ॥ 
ब्रह्म प्राप्ति अरु बन्ध की, हानि मोक्ष का रूप । 
ताकि चाह मुमुक्षुता, भाखत मुनिवर भूप ॥ 
ऐसे चार साधनों करके सहित जो होवे, वह अधिकारी कहिए है । अधिकारी नाम ग्रन्थ पढने वाला । यहाँ निरंजन शब्द करके ही, जीव ब्रह्म की एकता का विषय नाम वर्णन किया है । "प्रणामं पारंगत:" इत्यादि शब्द करके परमात्मा की प्राप्ति और सम्पूर्ण दु:खों की निवृत्ति रूप दोनों प्रकार का प्रयोजन कहिए मतलब है । सो कहते हैं- 
सदा ल़ीन आनन्द में, सहज रूप सब ठौर । 
दादू देखे एक को, दूजा नाहीं और ॥
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प्रश्न : अधिकारी संबन्ध आदिक तो हमने जाने, परन्तु आपके मंगल करने में 'नमो नमो नमस्कार, वन्दना, प्रणाम' इत्यादि में पुनरुक्त दोष आता है । 
उत्तर : नमोवाची शब्द की पंच आवृत्ति धर्म-सम्मत मानी गई है - "ऐसो पंच णमोकारो" इसकी पूर्ति हेतु भी "नमो नमो" दो बार उच्चारण किया गया समीचीन ही है ।
(क्रमशः)

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