सोमवार, 2 अप्रैल 2012

= श्री गुरुदेव का अँग १ =(१/३-४)

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 

*= श्री गुरुदेव का अँग १ =*

*गुरु प्राप्ति और फल*
*दादू गैब मांहिं गुरुदेव मिल्या, पाया हम परसाद ।* 
*मस्तक मेरे कर धर्या, दिक्ष्या अगम अगाध ॥ ३ ॥* 
टीका ~ गैब कहिए अकस्मात् राह में अचानक, अनायास अहंकार रूपी मस्तक अर्थात् सिर पर करुणामय कहिए उपदेश रूपी हाथ रखा । अगम कहिए छ: प्रमाणों(प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, उपमान, अर्थापत्ति, अनुपलब्धि) से अप्राप्य, अगाध, अथाह, अतलस्पर्श, अगम अर्थात् मन बुद्धि द्वारा अलभ्य, अगाध, त्रिगुणातीत, माया से पवित्र, अकस्मात् श्री स्वामी दादू दयाल जी महाराज ब्रह्मर्षि को बालपन में वृद्ध स्वरूप हरि भगवान् के दर्शन हुए, जिनसे आत्मज्ञान रूपी उपदेश मिला । कृपालु गुरुदेव ने आशीर्वाद देकर अगम अगाध यानी निर्गुण ब्रह्म का नाम-स्मरण रूप उपदेश दिया । जिसके प्रभाव से अगम-अगाध जो जीवन-मुक्ति रूप फल है, सो प्राप्त हुआ ॥ ३ ॥
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बाल समय दर्शन दियो, भगवत बूढण होहि । 
नगर अहमदाबाद में, दादू भज तूं मोहि ॥ 
सवैया : 
बालक खेलत देख मैदान में, वृद्ध स्वरूप हरि ने बनाये । 
बाल सफेद किये तन दीरघ, बालां सूं आन रु बैन सुनाये । 
और भयभीत ह्वै भाज गए जब दादू जी दौड़ समीप सूं आये । 
पान, पईसा के लाय दिया कर होइ प्रसन्न तामूल झिलाये । 
ब्रह्म प्रकाश उदय भयो भानु ज्यूं, दादू दयाल दुनी मध्य आये ॥ 
द्रष्टान्त :- बाल्यावस्था में ब्रह्मर्षि दादू दयाल महाराज ने नगर के बालक बालिकाओं को साथ लेकर कांकरिया तालाब अहमदाबाद में हरि कीर्तन स्वयं करते और कराते । एक दिन अचानक भगवान् ने प्रकट होकर दर्शन दिए । दुबारा ग्यारह साल की अवस्था में ब्रह्मर्षि दादू दयाल जी को दर्शन हुआ और उपरोक्त द्रष्टान्त अनुसार दीक्षा दी । 
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ज्यों गुरु दादू को मिले, त्यूं नानक यदुराय । 
कान्हा को गैबहि मिले, भाना रहुगण गुरु पाय ॥ 
द्रष्टान्त :- जैसे ब्रह्मर्षि जगतगुरु दादूदयाल को दर्शन हुए, वैसे ही गुरु नानक देव जी को हरि दर्शन देकर "वाहि गुरु" का उपदेश दिया । राज यदु को दत्तात्रेय महाराज ने वैसे ही दर्शन देकर उपदेश किया । 
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रंक पलटि ईश्वर किये, सतगुरु दत दे सार । 
चैन सकल आसा करै, जग में जै जैकार ॥ 
द्रष्टान्त :- यदुराजा को वन में भ्रमण करते समय अवधूत दत्तात्रेय अकस्मात् ही मिले थे । दत्तात्रेय को निश्चिन्त व स्थूलकाय देखकर राजा ने कहा- "त्रिताप से सारा जगत जल रहा है, किन्तु आप तो "ज्यों गयन्द गंगोदक माहीं, सब दाझे तुम दाझो नाहीं ।" अर्थात दावाग्नि से वन के सब जीव संतप्त होते हैं, किन्तु गंगा के प्रवाह में खड़ा हाथी वनाग्नि से संतप्त नहीं होता । कारण गंगा का जल बहता रहता है, इससे गर्म नहीं होता । ऐसे ही आप भी त्रिताप से संतप्त नहीं होते, इसमें क्या कारण है ? दत्तात्रेयजी ने कहा- "मैं चौबीस गुरुओं के ज्ञान के कारण त्रिताप से संतप्त नहीं होता । फिर यदु राजा को भी दत्तात्रेयजी ने उपदेश देकर कृतकृत्य कर दिया था । 
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द्रष्टान्त :- भाना एक सेठ था एवं काना उसका मुनीम था । नगर के किनारे एक नदी बहती थी । नदी के दूसरे किनारे एक सेठ का बगीचा था । संत चातुर्मास के लिए बगीचे में ठहरे हुए थे । भाना रोज स्वयं भोजन ले कर जाया करते था । चातुर्मास पूरा होने को आया । संत के मन में यह भावना हुई कि आज भाना को आशीर्वाद देंगे । उस रोज वर्षा बहुत भारी हुई । नदी में पानी बहुत चढ़ा हुआ था । भाना डर गया । मुनीम काना भोजन लेकर नदी पार कर संत की कुटी पर पहुँचा । संत ध्यान में थे । संत जी बोले, कौन है ? मुनीम ने कहा- मैं काना हूँ । संत जी बोले-भाना ! परन्तु उसने कहा, मैं काना हूँ । तीसरी बार संत जी ने कहा- काना ही सही । इतना सुनते ही काना के दिव्य चक्षु खुल गए । वे ही कान्हा लाडला भक्त कहलाये । 
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द्रष्टान्त :- सिंधु सौ बीर देशों का राजा रहुगण तत्व-ज्ञान प्राप्त करने कपिल मुनि के आश्रम जा रहा था । रास्ते में पालकी उठाने वालों में एक कहार की कमी हो गई । वहाँ महात्मा जड़भरत भगवान का ध्यान कर रहे थे । हट्टा-कट्टा देखकर कहारों ने राजा की पालकी में जोत दिया । जड़भरत रास्ते में चीटियों को बचाकर पैर रखते थे, जिससे पालकी हिलने-डुलने लगी । राजा रहुगण जडभरत को भला बुरा कहने लगा । जड़भरत ने उसकी बातों को शान्तिपूर्वक सुना और ज्ञानपूर्ण शब्दों में उनका उत्तर दिया । उनके वचनों से राजा समझ गया कि ये तो कोई महात्मा ज्ञानी पुरुष है । अत: राजा पालकी से उतर कर जड़भरत के चरणों में गिर गया और क्षमा-याचना की । महात्मा जड़भरत ने राजा को अध्यात्म-तत्व का उपदेश दिया, जिससे राजा रहुगण को यथार्थ ज्ञान प्राप्त हुआ । 
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गैबी मारग बिन जतन, ताका अद्भुत खेल । 
फल टूट धर दिसि पर्यो, लियो पंगु मुख झेल ॥ 
द्रष्टान्त :- एक पंगुल मनुष्य जामुन के वृक्ष के नीचे सीधा सोया हुआ था । अनायास उसको उबासी आई । ऊपर से एक जामुन का फल टूट कर उस मनुष्य के मुँह में जा गिरा । वह बहुत खुश हुआ, क्योंकि पंगुल को कोई फल खाने की इच्छा थी नहीं, परन्तु वह जामुन अचानक से उसके मुख में जा गिरी । इसको गैबी मार्ग कहते हैं । ऐसे ही ईश्वर की प्राप्ति होवे । 
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निमित्त निगम आगम, अनवांछित हो जाय । 
राघो राम रसायनी, मिले गैब में आय ॥ 
द्रष्टान्त :- एक नगर में सुनार भक्त रहता था । वह संतों की सेवा करता था । उसके मन में सोना बनाने की इच्छा थी । वह संतो से सोना बनाने के बारे में यह आम प्रश्न करता था कि सोना कैसे बनाया जाय ? एक संत ने बताया कि आप रोज तांबा गलाकर उसमें नई-नई बूंटी लाकर निचोरा करो । कभी उसमें सोना बनाने वाली बूंटी भी आ जाएगी । कुछ दिन पश्चात् वह सुनार पहाड़ों में चला गया । वहाँ भट्टी बनाकर तांबा गला ने लगा । जहाँ भट्टी बनाई थी, वहीं पर सोना बनाने बूंटी लगी थी । उसे इस बूंटी के बारे में पता नहीं था । पीछे से एक संत आ गये । संत जी ने विचार किया - "यह आदमी देखो कितना चतुर है" । इसने तो बूंटी के पास ही भट्टी बनाई है ताकि दूर नहीं जाना पड़े । संत जी बोले "निचोड़ दे" । भक्त संत जी के दर्शन करके बोला "गुरु के सामने चेला क्या निचोड़ दे, आप ही कृपा करो" । संत जी ने बूंटी के पत्ते तोड़ कर दोनों हाथों से निचोड़ा । कठौती में रस पड़ते ही सोना बन गया । न तो संत जी की इच्छा थी कि आज सोना बनाना है और न ही उस सुनार को भान था कि आज सोना बन जाएगा । अनायास यह काम हुआ, इसको गैबी मार्ग कहते हैं । ऐसे ही ब्रह्मर्षि दादू दयाल को गैब में हरि-दर्शन हुआ । 
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जो बिना परिश्रम ही गुरुदेव मिले हैं तो उपकार भी कम ही हुआ होगा ? इसका समाधान करते हुए, श्री दयाल जी महाराज सहज उपकार का वर्णन करते हैं :- 
*दादू सतगुरु सहज में, किया बहु उपकार ।* 
*निर्धन धनवंत करि लिया, गुरु मिलिया दातार ॥ ४ ॥* 
निर्धन = दरिद्र, तृष्णामय अन्त: करणवाला । 
धनवन्त = धनवान् अर्थात् संतोषमय धन देकर, धनवान् बना लिया । 
को वा दरिद्रो हि विशाल-तृष्ण:, 
श्रीमांश्च को यस्य समस्ततोष: ॥ 
सद्गुरु :-
ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमुर्तिं, 
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम् ।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधी साक्षिभूतं, 
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि ॥ 
टीका ~ सतगुरु भगवान् ने बिना फल की इच्छा के ही अनेक उपकार किए हैं, जिनकी महिमा नहीं कही जा सकती है । मोक्षफल के देने वाले दातार गुरुदेव ने भक्ति, ज्ञान, वैराग्य आदि से शून्य निर्धनता को दूर कर आत्म-ज्ञान देकर धनी बनाया है ॥ ४ ॥ 
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हंस हंसनी पै पीयो, धर्यो धर्या की आस । 
रामरतन धन प्रगटियो, सु कहि जगजीवनदास ॥ 
सिर चढाई धरी गुहा में, प्रगट किया सुस्थान । 
कही जगजीवन दरिद्रता, दूर कीयो, गुरुज्ञान ॥ 
जीव दरिद्री आदि को धनवन्त आपन बाप । 
माल मिल्या बहु गैब का, मिट गये सोक संताप ॥ 
द्रष्टान्त ~ एक नगर से साहूकार लोग विदेश कमाने के लिए निकल पड़े । उस नगर में एक वैश्य का लड़का रहता था । वह संतों का सेवक था । वह लड़का भी माता-पिता के आदेशानुसार उनके साथ चल पड़ा । सभी लोग जहाज में बैठकर रवाना हुए । रास्ते में एक टापू पर जहाज रुका । सब लो लोग अपनी दिनचर्या करने लगे । वह लड़का स्वभाव अनुसार संतों की खोज में निकला । जंगल में एक संत मिल गए । नमस्कार कर, वह संत जी के पास बैठ गया । गाँव वाले साहूकार जब वहाँ से रवाना होने लगे तब उस लड़के को भी चलने का आह्वान किया, परन्तु उसने चलने से मना कर दिया । उसने कहा - मैं संत-सेवा करुंगा । 
संत जी ने उसे एक गाय दिलाई । जंगल में चराने लगा और दूध निकाल कर संत जी को पिलाता एवं स्वयं पीता । एक रोज संत जी बोले कि तुम एक पाव दूध समुद्र के किनारे एक कुंडे में रख आया करो । तब वह लड़का दूध रख कर आया, तो वहाँ हंस-हंसनी आया करते थे । उन्होंने कुंडे में मोती डाल दिए और दूध पी लिया । हंस-हंसनी उड़ गए । वह दूसरे दिन दूध डालने गया तो उसको कुंडे में चार मोती मिले । वह ले आया और कुंडे में दूध डाल आया । उसने मोती लाकर गुरु जी को बताये । गुरु जी बोले इसी प्रकार रोज ले आया करो । 
वह लड़का संत जी के आदेशानुसार गाय के गोबर की चार थापड़ी बनाता और दो थापड़ियों में एक-एक जोड़ा मोती का रख देता । बहुत-सी मोतियों की थापड़ियाँ हो गई थीं । कुछ समय के बाद उन साहूकारों का जहाज वापिस लौटा । वह जहाज उसी टापू में रुका । सभी साहूकारों ने उस लड़के को गाँव चलने को कहा । उस लड़के ने गुरु जी से पूछा । गुरु जी बोले - सौम्य ! आप गाँव अवश्य जाओ, परन्तु जहाज में एक कमरा किराए पर ले लो । उस कमरे में अपनी की हुई कमाई वाली थापड़ियाँ अपने घर ले जाओ । शिष्य ने वैसा ही किया । कमरे की भीतरी हिस्से में मोतियों वाली थापड़ियाँ तथा तथा बाहर के हिस्से में खाली थापड़ियाँ लगा दीं । कमरे का किराया एवं रास्ते का खर्चा भी गुरु जी ने उसे दिलवा दिया । 
गुरु को प्रणाम कर वह लड़का जहाज में सवार हो गया । गाँव पहुँच कर जब राजा के दरबार में सभी लोग राजा से मिलने और नजर करने गए, तब वह लड़का भी मोतियों वाली दो थापड़ियाँ लेकर चल पड़ा । राजा के सामने किसी ने हीरा, किसी ने मोहर वगैरा नजर की, परन्तु इस लड़के ने दो थापड़ियाँ नजर की । राजा ने जब थापड़ियों को तुड़वाया, तो एक-एक में दो-दो नग निकल पड़े । सब चकित हो गए । ये नग उन हीरे जवाहरातों से कहीं ज्यादा कीमत वाले थे, क्योंकि यह संत-सेवा और ईश्वर-भक्ति का परिणाम था । तत्पश्चात् सभी नगरवासी ईश्वर के भक्त व संतों के सेवक बन गए । 
इस साखी में मध्यम शिष्य का निरूपण किया गया है । मध्यम शिष्य को "गुरु प्राप्ति का मार्ग, विहंगम" है । जैसे पक्षी अपने प्रयास से भोजन प्राप्त करता है, वैसे ही शिष्य गुरु को खोज द्वारा प्राप्त करे ।
(क्रमशः)

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