शनिवार, 16 जून 2012

= स्मरण का अँग २ =(७-८)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =*
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*दादू नीका नांव है, सौ तू हिरदय राखि ।* 
*पाखंड प्रपंच दूर करि, सुन साधुजन की साखि ॥ ७ ॥* 
टीका ~ प्रतिक्षण अपने मन को प्रभु के नाम स्मरण में ही लगाए रखो, यही सर्वोत्तम साधन हैं । पाखंड कहिए तन के, मन के, वाणी के दोषों को त्याग करके साधु महात्माओं की शिक्षा को सुनो, अर्थात् पवित्र हृदय और श्रद्धावान् होकर सत्संग करो । इसी से नाम स्मरण में एकाग्र वृत्ति होगी ॥ ७ ॥ 
चोरी जारी हिंसता, तन के दोष हैं तीन । 
निन्दा झूठ, कठोरता, वाक् चाल बक चीन ॥ 
तृष्णा, चिन्ता, द्वेष बुद्धि, नरसिंह त्रिय मन दोष । 
कायिक वाचिक मानसिक, दसों दोष तज मोक्ष ॥ 
एक देखा तृण धारी, सो तो ले गया साह की नारी । 
एक देखा अनाहारी, आधी रात मच्छी मारी ।
एक देखा शिलाधारी, नगरी मूसी रैंन सारी । 
एक देखा राजा ढोर, पकड़े साह और छोड़े चोर ॥ 
दृष्टांत(पाखंड पर) :- एक साहूकार ईश्वर का भक्त और संतों का सेवक था । एक रोज एक पाखंडी साधु उसकी दुकान के सामने आकर खड़ा हो गया । साहुकार ने पूछा - बाबा, कैसे खड़े हो ! साधु बोला - दो - चार दिन ठहरना चाहता हूँ । उसे घर के बाहर नोहरे के एक छप्पर में ठहरा दिया । तीन दीन ठहर कर वह चल दिया । थोड़ी दूर जाकर लौट आया और बोला - यह छप्पर का तिनका मेरी जटा में चला गया था, उसे लौटाने आया हूँ । साहुकार ने सोचा यह सच्चा साधु है । आग्रह कर घर के बाहर एक कमरे में उसको ठहरा दिया । अन्न - पानी की सेवा कई दिनों तक की । परन्तु वह साहुकार की स्त्री को बहकाने लगा और यहाँ तक कि अपने प्रभाव से उसको आकर्षित कर लिया । साहुकार एक रोज बाहर गया हुआ था । वह स्त्री सम्पूर्ण घर का द्रव्य पेटी में डालकर साधु के साथ चल पड़ी । पीछे से साहुकार आया, न साधु को देखा, न स्त्री को देखा और न ही द्रव्य ही घर में मिला । साहुकार उनकी खोज करने को चल पड़ा ।
एक जंगल में सायंकाल को पहुँचा । वहाँ भी एक साधु रहता था । साहुकार ने सोचा, आज रात महात्मा के पास विश्राम करूँगा । महात्मा बोला :- रात को हम किसी को यहाँ रहने नहीं देते, हम अनाहारी हैं । साहुकार समझ गया, यहाँ भी दाल में काला है । कुछ दूर जाकर वापस आया और एक पेड़ के नीचे छुप कर बैठ गया । उसने देखा कि उस साधु वेषधारी ने एक जाल निकाला और तालाब में फेंका । जाल में लेकर मच्छियाँ भूना । आप खाया और बाकी अपने रिश्तेदारों को दे दिया । सवेरे साहुकार चला । शाम होते - होते एक शहर के किनारे पहुँचा । वहाँ देखा एक भेषधारी पाखण्डी शिला पर बैठा है । साहुकार ने जाकर नमस्कार किया । बोला :- महाराज ! रात को मैं यहीं विश्राम करूँगा । पाखण्डी बोला :- हम त्यागी वैरागी हैं, रात को किसी को रहने नहीं देते हैं । साहुकार ने सोचा, यहाँ भी कुछ विशेषता है । कुछ दूर जाकर कहीं छुप कर बैठ गया । आधी रात्रि को चोर आए जो उसके साथी थे । उन सभी ने मिलकर राजा के महलों में जा कर चोरी की । माल लाकर शिला के नीचे गड्ढे में डाल दिया और वह आसन लगाकर बैठ गया ।
प्रात: काल पुलिस खोज करने लगी । साहुकार पुलिस के धक्के चढ़ गया । उसे सिपाही पकड़कर ले गए और बन्द कर दिया । वह सोचने लगा कि यह भी होना था, सो ठीक है । कोतवाली राजा के महल के समीप थी । रात्रि को साहुकार ने पूर्वोक्त दोहा बोला । राजा ने उसका सारा वृत्तान्त सुना । उसी समय कोतवाल को बुलाया और कहा कि आज के मुल्जिम के बयान सुबह हम लेंगे । उसको हिफाजत से रखो । सवेरे राजा के समक्ष उसे पेश किया । राजा ने पूछा कि रात वाला दोहा फिर बोले । साहुकार ने दोहा बोला । राजा ने तुरन्त पुलिस को आज्ञा दी । उस फलाहारी की तलाशी ले आओ । पुलिस ने जब तलाशी ली तो हिंसा करने के जाल आदि सभी मिल गए । वे उसे गिरफ्तार कर ले आए । शिलाधारी की तलाशी लेकर आओ । वह नगर के पास शिला पर बैठा था । नगर में जितनी चोरियाँ हुईं, वह सारा माल उसकी शिला के नीचे निकला । माल सहित पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया । राजा ने साहुकार के कहने के अनुसार उसकी स्त्री और पाखण्डी साधु जो बोलता था, हम किसी का तृण भी नहीं ले जाते, उनका वारण्ट कटवा दिया । कुछ दिन बाद वे मिल गए । चारों को पुलिस ने राजा के सामने दरबार में पेश किया । साहूकार ने यह श्लोक बोला :-
कुश - पत्र न चीन्है ब्रह्म ज्ञान, 
फल फूल न छूवै, बगुल ध्यान । 
नर निकट न राखै डंड धार, 
पर पुरुष न छूवै येही नार ॥ 
राजा ने चारों के बयान सुनकर साहूकार से पूछा :- क्या दण्ड दें ? साहुकार बोले :- हुजूर ! इन चारों को काला पानी भेज देना चाहिए । ये देश में रहने के काबिल नहीं हैं । इनके लिए यही सजा ठीक होगी ।
सतगुरु महाराज उपदेश करते हैं कि तन, मन, वचन के पाखण्ड को त्याग कर प्रभु का भजन करने से ही कल्याण होता है ।
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*दादू नीका नांव है, आप कहै समझाइ ।*
*और आरम्भ सब छाड़ दे, राम नाम ल्यौ लाइ ॥ ८ ॥*
टीका ~ हे जिज्ञासु ! राम - नाम का स्मरण ही सर्वोत्तम है । यही राम - नाम सतगुरु ने समझकर उपदेश किया है अथवा भगवान् ने अपने भक्तों को बतलाया है कि हे जिज्ञासु ! तुम स्वयं अपने मन को समझा करके यही उपदेश कर अथवा नाम के स्मरण में मन को निश्चल कर । इसके अतिरिक्त जितने भी सकाम कर्म हैं, उन सबको त्याग करके चित्तवृत्ति को केवल राम - नाम में ही लगा ।
जगन्नाथ सब बात में करिये ढील अनन्त । 
राम नाम उपकार की, बेर न करत बनंत ॥ 
भोजन कर शत काम तज, दस शत तज कर न्हाइ । 
आयुत छाड़ उपकार कर, लख बीसर हरि ध्याइ ॥ 
"सर्व धर्मा - परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज । 
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयि व्यामि मा शुच: ॥"
(क्रमशः)

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