॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= स्मरण का अंग - २ =*
*= स्मरण का अंग - २ =*
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यदि नामी परमेश्वर एक ही है, तो अल्लाह और राम के सम्प्रदायवादी पुरुषों में भेद क्यों है । इस संशय के निवारणार्थ कहते हैं :-
यदि नामी परमेश्वर एक ही है, तो अल्लाह और राम के सम्प्रदायवादी पुरुषों में भेद क्यों है । इस संशय के निवारणार्थ कहते हैं :-
*दादू एकै अलह राम है, समर्थ सांई सोइ ।*
*मैदे के पकवान सब, खातां होइ सु होइ ॥ २१ ॥*
टीका - हे जिज्ञासु ! अल्लह, राम और समर्थ सांई, यह एक ही है । अल्लह और राम से तात्पर्य यह है कि इसी प्रकार से परमेश्वर बोधक भिन्न - भिन्न धर्मों के जितने भी नाम हैं, वे सब एक ही परमात्मा का बोध कराने वाले हैं । अब उन सब का फल कहते हैं कि जैसे एक ही मैदा के अनेक पदार्थ बनते हैं, जो कि इच्छा और स्वाद भेद से वे भिन्न - भिन्न प्रतीत होते हैं, किन्तु उनके खाने से क्षुधा - निवृत्ति और पुष्टि रूप रूचि के अनुसार भिन्न - भिन्न हैं । इसी प्रकार एकाग्रता से परमात्मा के नामों में से किसी भी एक नाम के स्मरण करने से आत्म - साक्षात्कार व मोक्ष रूप एक ही फल की प्राप्ति होती है ।
ज्यूं आतम अरवाह इक, त्यूं ही राम रहीम ।
उदक आब कछु द्वै नहीं, रज्जब समझ फहीम ॥
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*निर्गुण सगुण विवाद की निवृत्ति*
*सगुण निर्गुण ह्वै रहै, जैसा है तैसा लीन ।*
*निर्गुण सगुण विवाद की निवृत्ति*
*सगुण निर्गुण ह्वै रहै, जैसा है तैसा लीन ।*
*हरि सुमिरण ल्यौ लाइए, का जाणों का कीन ॥ २२ ॥*
टीका - हे जिज्ञासुजनों ! प्रभु को चाहे साकार मानो या निराकार मानो, किन्तु जिसकी जैसी धारणा हो, उसी में अपनी वृत्ति को एकाग्र करो, क्योंकि प्रभु किसी का बनाया हुआ तो है नहीं । इसलिए मैं उस प्रभु का स्वरूप कैसे जान सकता हूँ ! वह सर्वशक्तिमान् दयालु परमेश्वर न मालूम किस रूप में प्रसन्न होता है । पूर्व भक्तों ने उस परमेश्वर का किस रूप में साक्षात्कार किया है ? अभिप्राय यह है कि पूर्ण समर्थ होने से प्रभु के लिए निर्गुण सगुण का प्रतिबन्ध सम्भव नहीं है । इसलिए जिज्ञासुजनों को अपनी भावनानुसार प्रभु का पूर्ण लग्नता से जाप करना चाहिए ।
स एव करुणासिंधु: भगवान् भक्तवत्सल: ।
उपासकानुरोधेन भजते मूर्तिपंचकम् ॥
सर्वेश्वर: सर्वमय: सर्वभूतहिते रत: ।
सर्वेषामुपकाराय साकारोऽभूत् निराकृति: ॥
(भगवान् निराकार होते हुए भी भक्त की वाणी को सत्य सिद्ध करने के लिये साकार बन जाते हैं ।)
"मोरे मत बड़ नाम दुहु तैं किये जेहिं जग निज वश बूतें ॥"
गुरु दादू पै बादि द्वै, आए द्वै पख देख ।
तिन दोनों की बात सुन, भाख्यो वचन विशेष ॥
दृष्टांत :- एक निर्गुण और दूसरा सगुण, दोनों उपासक परस्पर विचार करने लगे । एक कहता है निर्गुण है प्रभु, दूसरा कहता है सगुण है प्रभु । दोनों अपनी - अपनी उपासना की सिद्धि आपस में बतलाने लगे । एक बांस लेकर आकाश में घुमाने लगा और बोला हे प्रभु ! आप सगुणरूप हो तो यह बांस आपसे टकराना चाहिए । तब बांस ज्योंहि आकाश में घुमाया, त्यों ही टकराता हुआ मालूम पड़ा । बोला, देखो प्रभु सगुण है । तब निर्गुण उपासक हाथ में बांस लेकर बोला :- हे प्रभु ! यदि आप निराकार हैं तो यह बांस आपके कहीं भी न टकरावे । बांस घुमाया तो बांस कहीं भी आकाश में नहीं टकराया । तब दोनों ने विचार किया कि दोनों की उपासना तो सत्य है, परन्तु यह पता नहीं चला कि प्रभु वास्तव में सगुण है या निर्गुण है ? तब वे ब्रह्मर्षि दादू दयाल के पास आए । दोनों ने अपना अपना प्रश्न किया । गुरूदेव ने उपर्युक्त साखी से उत्तर दे दिया । उन दोनों ने ही अपनी - अपनी धारणा के द्वारा प्रभु को प्राप्त कर लिया ।
(क्रमशः)
(क्रमशः)
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