॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= स्मरण का अंग - २ =*
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*मन प्रबोध*
*दादू जे तैं अब जाण्या नहीं, राम नाम निज सार ।*
*मन प्रबोध*
*दादू जे तैं अब जाण्या नहीं, राम नाम निज सार ।*
*फिर पीछै पछिताहिगा, रे मन मूढ गँवार ॥ २७ ॥*
टीका - हे मन ! तूं बहुत मूर्ख है, क्योंकि तीनों लोकों का सार जो राम का नाम है उसके महत्व को मनुष्य देह प्राप्त करके भी तूने नहीं समझा । हे गँवार ! विषयों के यार ! अविवेकी ! अन्त समय में जब तन और मन बुढ़ापे के नाना दु:खों के कारण से धैर्य छोड़ देंगे, तब तुझे "मैंने मनुष्य देह प्राप्त करके भी कुछ नहीं किया", इत्यादिक पश्चाताप मात्र ही रहेगा ।
इयमेव परा हानिरूपसर्गोऽप्यमेव हि ।
अभाग्यं परमं चैतद् वासुदेवं न यत् स्मरेत् ॥
शीतेऽतीते वसनमशनं वासरान्ते निशान्ते,
क्रीडारम्भं कुवल यदृशां यौवनान्ते विवाहम् ।
सेतोर्बन्धं पयसि चलितं वार्धके तीर्थयात्रा,
वित्ते नष्टे वितरणमहों कर्तुमिच्छन्ति मूढा: ॥
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*दादू राम संभाल ले, जब लग सुखी सरीर ।*
*फिरि पीछै पछिताहिगा, जब तन मन धरै न धीर ॥ २८ ॥*
टीका - हे जिज्ञासुजनों ! इस समय जबकि तन - मन तुम्हारा सुखी है, राम - नाम का स्मरण कर लो अन्यथा तन मन के धैर्य त्यागने पर केवल पश्चाताप ही होता रहेगा ।
यावत् स्वस्थमिदं शरीरमरूजं यावज्जरा दूरत:,
यावच्चेन्द्रिय शक्ति प्रतिहता यावात्क्षयो नायुष: ।
आत्म श्रेयसि तावदेव विदुषा कार्य: प्रयत्नो महान्,
सन्दीप्ते भवने तु कूपखननं प्रत्युद्यम: कीदृश: ॥
-भृतहरि-
समय हरि ध्यायो नहीं, सुख में रह्यो लुभाय ।
जब ऊधो समये गयो, तब मूरख पछताय ॥
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