गुरुवार, 28 जून 2012

= स्मरण का अँग २ =(३१-२)


॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =*
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*स्मरण नाम नि:संशय*
*मेरा संसा को नहीं, जीवण मरण का राम ।*
*सुपिनैं ही जनि बीसरै, मुख हिरदै हरि नाम ॥ ३१ ॥*
टीका - श्री ब्रह्मर्षि दादू दयाल महाराज, जिज्ञासुजनों के कल्याण के निमित्त, स्वयं को ही उपलक्ष कर के प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि हे रामजी ! हमारे जीने और मरने का तो हमें कोई संशय नहीं है । न जीने में आसक्ति(हर्ष) है और न मरने से अनासक्ति(भय) है, किन्तु पापों के हरने वाले हे हरि ! आपका पवित्र नाम मुख और हृदय से हम कभी क्षण भर भी न भूलें, ऐसी आप कृपा करो । अथवा हे जिज्ञासुजनों ! जीवन और मरण का अन्तिम आश्रय एक नाम ही है, इसमें कोई संशय नहीं है । इसलिए राम - नाम को क्षण भर भी मत भूलो । रात - दिन प्रभु - स्मरण में संलग्न रहो । 
"बहुत जीये का हर्ष न करणा ।
वेग मरण का सोच न कोई ॥" 
"जगन्नाथ" संसै बिन सुमिरण ।
करता होइ सो होई ॥ 
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*स्मरण नाम विरह*
*दादू दुखिया तब लगै, जब लग नाम न लेहि ।*
*तब ही पावन परम सुख, मेरी जीवनि येहि ॥ ३२ ॥* 
जब - जब संतों के नाम-स्मरण में विक्षेप पड़े तब - तब ही वे दु:खी होते हैं, क्योंकि संत पुरुषों का जीवन राम - नाम स्मरण ही है, जब तक यह जीवात्मा परमेश्वर का नाम नहीं लेता, तब यह दु:खी रहता है और जब एकाग्र चित्त से परमेश्वर के नाम का स्मरण करता है, तो पवित्र होकर परम सुखी हो जाता है । ब्रह्मर्षि सतगुरु आज्ञा करते हैं कि हे जिज्ञासुजनों ! "जीवनि" कहिए मेरे जीवन में जिज्ञासुओं को राम नाम स्मरण के लिए यही आदर्श व आज्ञा स्वरूप है ॥ ३२ ॥
(क्रमशः)

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